प्रेरणादायक पर शेर
तरग़ीबी या प्रेरक शायरी
उन लम्हों में भी हमारे साथ होती है जब परछाईं भी दूर भागने लगती है। ऐसी मुश्किल घड़ियाँ ज़िन्दगी में कभी भी रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती हैं। हौसलों के चराग़ बुझने लगते हैं और उम्मीदों की लौ मद्धम पड़ जाती है। तरग़ीबी शायरी इन हालात में ढारस बंधाती और हिम्मत देती है। आप भी देखिए ये चंद अशआरः
जहाँ पहुँच के क़दम डगमगाए हैं सब के
उसी मक़ाम से अब अपना रास्ता होगा
आबाद अगर न दिल हो तो बरबाद कीजिए
गुलशन न बन सके तो बयाबाँ बनाइए
गुमशुदगी ही अस्ल में यारो राह-नुमाई करती है
राह दिखाने वाले पहले बरसों राह भटकते हैं
रास्ता सोचते रहने से किधर बनता है
सर में सौदा हो तो दीवार में दर बनता है
जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की
मिरे नाख़ुदा न घबरा ये नज़र है अपनी अपनी
तिरे सामने है तूफ़ाँ मिरे सामने किनारा
तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
व्याख्या
यह शे’र इसरार-उल-हक़ मजाज़ के मशहूर अशआर में से एक है। माथे पे आँचल होने के कई मायने हैं। उदाहरण के लिए शर्म व लाज का होना, मूल्यों का रख रखाव होना आदि और भारतीय समाज में इन चीज़ों को नारी का शृंगार समझा जाता है। मगर जब नारी के इस शृंगार को पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी की कमज़ोरी समझा जाता है तो नारी का व्यक्तित्व संकट में पड़ जाता है। इसी तथ्य को शायर ने अपने शे’र का विषय बनाया है। शायर नारी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि यद्यपि तुम्हारे माथे पर शर्म व हया का आँचल ख़ूब लगता है मगर उसे अपनी कमज़ोरी मत बना। वक़्त का तक़ाज़ा है कि आप अपने इस आँचल से क्रांति का झंडा बनाएं और इस ध्वज को अपने अधिकारों के लिए उठाएं।
शफ़क़ सुपुरी
कपड़े सफ़ेद धो के जो पहने तो क्या हुआ
धोना वही जो दिल की सियाही को धोइए
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो यारो
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मत बैठ आशियाँ में परों को समेट कर
कर हौसला कुशादा फ़ज़ा में उड़ान का
जादा जादा छोड़ जाओ अपनी यादों के नुक़ूश
आने वाले कारवाँ के रहनुमा बन कर चलो
न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में
उठो ये मंज़र-ए-शब-ताब देखने के लिए
कि नींद शर्त नहीं ख़्वाब देखने के लिए
रंग-ए-महफ़िल चाहता है इक मुकम्मल इंक़लाब
चंद शम्ओं के भड़कने से सहर होती नहीं
अभी से पाँव के छाले न देखो
अभी यारो सफ़र की इब्तिदा है
ख़ैर से रहता है रौशन नाम-ए-नेक
हश्र तक जलता है नेकी का चराग़
मिरे जुनूँ का नतीजा ज़रूर निकलेगा
इसी सियाह समुंदर से नूर निकलेगा
लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को
मर्द वो हैं जो ज़माने को बदल देते हैं
मैं ने हर तख़रीब में देखी है इक ता'मीर भी
मेरा मिट जाना भी है हिम्मत-फ़ज़ा मेरे लिए
बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए
मैं पत्थरों से पाँव बचाने में रह गया
गो आबले हैं पाँव में फिर भी ऐ रहरवो
मंज़िल की जुस्तुजू है तो जारी रहे सफ़र
प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर
मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े
नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें
मर्द हैं वो जो ज़माने को बदल देते हैं
हर मुसीबत का दिया एक तबस्सुम से जवाब
इस तरह गर्दिश-ए-दौराँ को रुलाया मैं ने
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
ग़रीबी अमीरी है क़िस्मत का सौदा
मिलो आदमी की तरह आदमी से
हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल'
ये बुरे दिन भी गुज़र जाएँगे
लोग चुन लें जिस की तहरीरें हवालों के लिए
ज़िंदगी की वो किताब-ए-मो'तबर हो जाइए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है
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चराग़-ए-राहगुज़र लाख ताबनाक सही
जला के अपना दिया रौशनी मकान में ला
काँटे बोने वाले सच-मुच तू भी कितना भोला है
जैसे राही रुक जाएँगे तेरे काँटे बोने से
चाहिए ख़ुद पे यक़ीन-ए-कामिल
हौसला किस का बढ़ाता है कोई
हार हो जाती है जब मान लिया जाता है
जीत तब होती है जब ठान लिया जाता है
मुसीबत का पहाड़ आख़िर किसी दिन कट ही जाएगा
मुझे सर मार कर तेशे से मर जाना नहीं आता
न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर रहे देखते औरों के ऐब ओ हुनर
पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र तो निगाह में कोई बुरा न रहा
हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं
लकीरें खींचते रहने से बन गई तस्वीर
कोई भी काम हो, बे-कार थोड़ी होता है
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
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ये कह के दिल ने मिरे हौसले बढ़ाए हैं
ग़मों की धूप के आगे ख़ुशी के साए हैं
'अख़्तर' गुज़रते लम्हों की आहट पे यूँ न चौंक
इस मातमी जुलूस में इक ज़िंदगी भी है
आस्ताँ भी कोई मिल जाएगा ऐ ज़ौक-ए-नियाज़
सर सलामत है तो सज्दा भी अदा हो जाएगा
इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम न बुझे
रौशनी ख़त्म न कर आगे अँधेरा होगा
दौलत-ए-दुनिया नहीं जाने की हरगिज़ तेरे साथ
बाद तेरे सब यहीं ऐ बे-ख़बर बट जाएगी
हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं
दुश्मनी का सफ़र इक क़दम दो क़दम
तुम भी थक जाओगे हम भी थक जाएँगे
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो