मंज़िल पर शेर
मंज़िल की तलाश-ओ-जुस्तुजू
और मंज़िल को पा लेने की ख़्वाहिश एक बुनियादी इन्सानी ख़्वाहिश है। उसी की तकमील में इन्सान एक मुसलसल और कड़े सफ़र में सरगर्दां है लेकिन हैरानी की बात तो ये है कि मिल जाने वाली मंज़िल भी आख़िरी मंज़िल नहीं होती। एक मंज़िल के बाद नई मंज़िल तक पहुँचने की आरज़ू और एक नए सफ़र का आग़ाज़ हो जाता है। मंज़िल और सफ़र के हवाले से और बहुत सारी हैरान कर देने वाली सूरतें हमारे इस इन्तिख़ाब में मौजूद हैं।
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
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टैग्ज़ : प्रेरणादायकऔर 5 अन्य
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में
नज़र आती है उन को अपनी मंज़िल आसमानों में
जिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा
'फ़ैज़' थी राह सर-ब-सर मंज़िल
हम जहाँ पहुँचे कामयाब आए
सिर्फ़ इक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में
मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही
कोई मंज़िल के क़रीब आ के भटक जाता है
कोई मंज़िल पे पहुँचता है भटक जाने से
उस ने मंज़िल पे ला के छोड़ दिया
उम्र भर जिस का रास्ता देखा
नहीं होती है राह-ए-इश्क़ में आसान मंज़िल
सफ़र में भी तो सदियों की मसाफ़त चाहिए है
वो क्या मंज़िल जहाँ से रास्ते आगे निकल जाएँ
सो अब फिर इक सफ़र का सिलसिला करना पड़ेगा
मुझे आ गया यक़ीं सा कि यही है मेरी मंज़िल
सर-ए-राह जब किसी ने मुझे दफ़अतन पुकारा
सब को पहुँचा के उन की मंज़िल पर
आप रस्ते में रह गया हूँ मैं
एक मंज़िल है मगर राह कई हैं 'अज़हर'
सोचना ये है कि जाओगे किधर से पहले
कोई मंज़िल आख़िरी मंज़िल नहीं होती 'फ़ुज़ैल'
ज़िंदगी भी है मिसाल-ए-मौज-ए-दरिया राह-रौ
मंज़िल मिली मुराद मिली मुद्दआ मिला
सब कुछ मुझे मिला जो तिरा नक़्श-ए-पा मिला
हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए
जो थक गया हो बैठ के मंज़िल के सामने
मंज़िल न मिली तो ग़म नहीं है
अपने को तो खो के पा गया हूँ
मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं
वही अंदाज़-ए-जहान-ए-गुज़राँ है कि जो था
मुझ को मंज़िल भी न पहचान सकी
मैं कि जब गर्द-ए-सफ़र से निकला
चला मैं जानिब-ए-मंज़िल तो ये हुआ मालूम
यक़ीं गुमान में गुम है गुमाँ है पोशीदा
किस मंज़िल-ए-मुराद की जानिब रवाँ हैं हम
ऐ रह-रवान-ए-ख़ाक-बसर पूछते चलो
न तो रंज-ओ-ग़म से ही रब्त है न ही आश्ना-ए-ख़ुशी हूँ मैं
मिरी ज़िंदगी भी अजीब है इसे मंज़िलों का पता नहीं
ख़ुद-बख़ुद राह लिए जाती है उस की जानिब
अब कहाँ तक है रसाई मुझे मालूम नहीं
पलट आता हूँ मैं मायूस हो कर उन मक़ामों से
जहाँ से सिलसिला नज़दीक-तर होता है मंज़िल का