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रद करें डाउनलोड शेर

औरत पर शेर

औरत को मौज़ू बनाने वाली

शायरी औरत के हुस्न, उस की सिन्फ़ी ख़ुसूसियात, उस के तईं इख़्तियार किए जाने वाले मर्द असास समाज के रवय्यों और दीगर बहुत से पहलुओं का अहाता करती है। औरत की इस कथा के मुख़्तलिफ़ रंगों को हमारे इस इन्तिख़ाब में देखिए।

सब ने माना मरने वाला दहशत-गर्द और क़ातिल था

माँ ने फिर भी क़ब्र पे उस की राज-दुलारा लिक्खा था

अहमद सलमान

ज़माने अब तिरे मद्द-ए-मुक़ाबिल

कोई कमज़ोर सी औरत नहीं है

फ़रीहा नक़वी

ख़ुद पे ये ज़ुल्म गवारा नहीं होगा हम से

हम तो शो'लों से गुज़़रेंगे सीता समझें

बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन

सदियों से मिरे पाँव तले जन्नत-ए-इंसाँ

मैं जन्नत-ए-इंसाँ का पता ढूँढ रही हूँ

अदा जाफ़री

उसे हम पर तो देते हैं मगर उड़ने नहीं देते

हमारी बेटी बुलबुल है मगर पिंजरे में रहती है

रहमान मुसव्विर

औरत अपना आप बचाए तब भी मुजरिम होती है

औरत अपना आप गँवाए तब भी मुजरिम होती है

नीलमा नाहीद दुर्रानी

तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन

तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

व्याख्या

यह शे’र इसरार-उल-हक़ मजाज़ के मशहूर अशआर में से एक है। माथे पे आँचल होने के कई मायने हैं। उदाहरण के लिए शर्म लाज का होना, मूल्यों का रख रखाव होना आदि और भारतीय समाज में इन चीज़ों को नारी का शृंगार समझा जाता है। मगर जब नारी के इस शृंगार को पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी की कमज़ोरी समझा जाता है तो नारी का व्यक्तित्व संकट में पड़ जाता है। इसी तथ्य को शायर ने अपने शे’र का विषय बनाया है। शायर नारी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि यद्यपि तुम्हारे माथे पर शर्म हया का आँचल ख़ूब लगता है मगर उसे अपनी कमज़ोरी मत बना। वक़्त का तक़ाज़ा है कि आप अपने इस आँचल से क्रांति का झंडा बनाएं और इस ध्वज को अपने अधिकारों के लिए उठाएं।

शफ़क़ सुपुरी

असरार-उल-हक़ मजाज़

दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ

कभी दुआ नहीं माँगी थी माँ के होते हुए

इफ़्तिख़ार आरिफ़

निकल के ख़ुल्द से उन को मिली ख़िलाफ़त-ए-अर्ज़

निकाले जाने की तोहमत हमारे सर आई

अज्ञात

एक के घर की ख़िदमत की और एक के दिल से मोहब्बत की

दोनों फ़र्ज़ निभा कर उस ने सारी उम्र इबादत की

ज़ेहरा निगाह

मिट्टी पे नुमूदार हैं पानी के ज़ख़ीरे

इन में कोई औरत से ज़ियादा नहीं गहरा

सरवत हुसैन

औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो

ये बोल ख़ानदान की इज़्ज़त पे हर्फ़ है

सय्यदा अरशिया हक़

तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो

एक औरत का दर्द क्या जानो

सय्यदा अरशिया हक़

औरत के ख़ुदा दो हैं हक़ीक़ी मजाज़ी

पर उस के लिए कोई भी अच्छा नहीं होता

ज़ेहरा निगाह

ख़ुदा ने गढ़ तो दिया आलम-ए-वजूद मगर

सजावटों की बिना औरतों की ज़ात हुई

अब्दुल हमीद अदम

तमाम पैकर-ए-बदसूरती है मर्द की ज़ात

मुझे यक़ीं है ख़ुदा मर्द हो नहीं सकता

फ़रहत एहसास

कौन बदन से आगे देखे औरत को

सब की आँखें गिरवी हैं इस नगरी में

हमीदा शाहीन

वजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-काएनात में रंग

इसी के साज़ से है ज़िंदगी का सोज़-ए-दरूँ

अल्लामा इक़बाल

बताऊँ क्या तुझे हम-नशीं किस से मोहब्बत है

मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो इस दुनिया की औरत है

असरार-उल-हक़ मजाज़

देख कर शाइ'र ने उस को नुक्ता-ए-हिकमत कहा

और बे-सोचे ज़माने ने उसे ''औरत'' कहा

शाद आरफ़ी

बिंत-ए-हव्वा हूँ मैं ये मिरा जुर्म है

और फिर शाएरी तो कड़ा जुर्म है

सरवत ज़ेहरा

घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं

लड़कियाँ धान के पौदों की तरह होती हैं

मुनव्वर राना

उन को भी तिरे इश्क़ ने बे-पर्दा फिराया

जो पर्दा-नशीं औरतें रुस्वा हुईं थीं

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

तू आग में औरत ज़िंदा भी जली बरसों

साँचे में हर इक ग़म के चुप-चाप ढली बरसों

हबीब जालिब

एक औरत से वफ़ा करने का ये तोहफ़ा मिला

जाने कितनी औरतों की बद-दुआएँ साथ हैं

बशीर बद्र

अभी रौशन हुआ जाता है रस्ता

वो देखो एक औरत रही है

शकील जमाली

चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है

मैं ने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है

मुनव्वर राना

शो-केस में रक्खा हुआ औरत का जो बुत है

गूँगा ही सही फिर भी दिल-आवेज़ बहुत है

कृष्ण अदीब

एक मुद्दत से मिरी माँ नहीं सोई 'ताबिश'

मैं ने इक बार कहा था मुझे डर लगता है

अब्बास ताबिश

बेटियाँ बाप की आँखों में छुपे ख़्वाब को पहचानती हैं

और कोई दूसरा इस ख़्वाब को पढ़ ले तो बुरा मानती हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

जिस को तुम कहते हो ख़ुश-बख़्त सदा है मज़लूम

जीना हर दौर में औरत का ख़ता है लोगो

रज़िया फ़सीह अहमद

कल अपने-आप को देखा था माँ की आँखों में

ये आईना हमें बूढ़ा नहीं बताता है

मुनव्वर राना

तलाक़ दे तो रहे हो इताब-ओ-क़हर के साथ

मिरा शबाब भी लौटा दो मेरी महर के साथ

साजिद सजनी लखनवी

जवान गेहूँ के खेतों को देख कर रो दें

वो लड़कियाँ कि जिन्हें भूल बैठीं माएँ भी

किश्वर नाहीद

माना जीवन में औरत इक बार मोहब्बत करती है

लेकिन मुझ को ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं

क़तील शिफ़ाई

औरत हूँ मगर सूरत-ए-कोहसार खड़ी हूँ

इक सच के तहफ़्फ़ुज़ के लिए सब से लड़ी हूँ

फ़रहत ज़ाहिद

है कामयाबी-ए-मर्दां में हाथ औरत का

मगर तू एक ही औरत पे इंहिसार कर

अज़ीज़ फ़ैसल

क़िस्सा-ए-आदम में एक और ही वहदत पैदा कर ली है

मैं ने अपने अंदर अपनी औरत पैदा कर ली है

फ़रहत एहसास

शहर का तब्दील होना शाद रहना और उदास

रौनक़ें जितनी यहाँ हैं औरतों के दम से हैं

मुनीर नियाज़ी

औरतों की आँखों पर काले काले चश्मे थे सब की सब बरहना थीं

ज़ाहिदों ने जब देखा साहिलों का ये मंज़र लिख दिया गुनाहों में

ज़ुबैर रिज़वी

यहाँ की औरतों को इल्म की परवा नहीं बे-शक

मगर ये शौहरों से अपने बे-परवा नहीं होतीं

अकबर इलाहाबादी

औरतें काम पे निकली थीं बदन घर रख कर

जिस्म ख़ाली जो नज़र आए तो मर्द बैठे

फ़रहत एहसास

औरत को समझता था जो मर्दों का खिलौना

उस शख़्स को दामाद भी वैसा ही मिला है

तनवीर सिप्रा

ये औरतों में तवाइफ़ तो ढूँड लेती हैं

तवाइफ़ों में इन्हें औरतें नहीं मिलतीं

मीना नक़वी

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया

साहिर लुधियानवी

रौशनी भी नहीं हवा भी नहीं

माँ का नेमुल-बदल ख़ुदा भी नहीं

अंजुम सलीमी

अच्छी-ख़ासी रुस्वाई का सबब होती है

दूसरी औरत पहली जैसी कब होती है

फ़े सीन एजाज़

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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