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फ़ेमस शायरी पर शेर

ये सारे अशआर आप सबने

पढ़े या सुने होंगे। इन अशआर ने एक तरह से ज़र्ब-उल-मसल की हैसियत पा ली है। उनमें से बहुत से अशआर आपको याद भी होंगे, लेकिन अपने इन पसंदीदा अशआर को एक जगह देखना यक़ीनन आपके लिए ख़ुशी का बाइस होगा।

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो

जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए

बशीर बद्र

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए

फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए

अहमद फ़राज़

दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है

लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन

दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है

मिर्ज़ा ग़ालिब

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब

आज तुम याद बे-हिसाब आए

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो

धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है

राहत इंदौरी

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम

वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता

अकबर इलाहाबादी

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया

वर्ना हम भी आदमी थे काम के

मिर्ज़ा ग़ालिब

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का

उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

मिर्ज़ा ग़ालिब

जी भर के देखा कुछ बात की

बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की

बशीर बद्र

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले

ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है

अल्लामा इक़बाल

होश वालों को ख़बर क्या बे-ख़ुदी क्या चीज़ है

इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है

निदा फ़ाज़ली

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

अहमद फ़राज़

इस सादगी पे कौन मर जाए ख़ुदा

लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

मिर्ज़ा ग़ालिब

एक मुद्दत से तिरी याद भी आई हमें

और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं

फ़िराक़ गोरखपुरी

माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं

तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख

अल्लामा इक़बाल

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

मिर्ज़ा ग़ालिब

अच्छा ख़ासा बैठे बैठे गुम हो जाता हूँ

अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता तुम हो जाता हूँ

अनवर शऊर

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं

अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं

अल्लामा इक़बाल

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर

लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया

मजरूह सुल्तानपुरी

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं

तुझे ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

फ़िराक़ गोरखपुरी

चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है

हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

हसरत मोहानी

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी

यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

बशीर बद्र

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे

तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे

वसीम बरेलवी

वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना हो मुमकिन

उसे इक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा

साहिर लुधियानवी

ज़िंदगी तू ने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं

पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है

बशीर बद्र

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम

तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए

अहमद फ़राज़

हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं

हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं

जिगर मुरादाबादी

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के

वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल

कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा

अहमद फ़राज़

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या

आगे आगे देखिए होता है क्या

मीर तक़ी मीर

जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा

किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता

व्याख्या

इस शे’र में कई अर्थ ऐसे हैं जिनसे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वसीम बरेलवी शे’र में अर्थ के साथ कैफ़ियत पैदा करने की कला से परिचित हैं। ‘जहाँ’ के सन्दर्भ से ‘वहीं’ और इन दोनों के सन्दर्भ से ‘मकाँ’, ‘चराग़’ के सन्दर्भ से ‘रौशनी’ और इससे बढ़कर ‘किसी’ ये सब ऐसे लक्षण हैं जिनसे शे’र में अर्थोत्पत्ति का तत्व पैदा हुआ है।

शे’र के शाब्दिक अर्थ तो ये हो सकते हैं कि चराग़ अपनी रौशनी से किसी एक मकाँ को रौशन नहीं करता है, बल्कि जहाँ जलता है वहाँ की फ़िज़ा को प्रज्वलित करता है। इस शे’र में एक शब्द 'मकाँ' केंद्र में है। मकाँ से यहाँ तात्पर्य मात्र कोई ख़ास घर नहीं बल्कि स्थान है।

अब आइए शे’र के भावार्थ पर प्रकाश डालते हैं। दरअसल शे’र में ‘चराग़’, ‘रौशनी’ और ‘मकाँ’ की एक लाक्षणिक स्थिति है। चराग़ रूपक है नेक और भले आदमी का, उसके सन्दर्भ से रोशनी रूपक है नेकी और भलाई का। इस तरह शे’र का अर्थ ये बनता है कि नेक आदमी किसी ख़ास जगह नेकी और भलाई फैलाने के लिए पैदा नहीं होते बल्कि उनका कोई विशेष मकान नहीं होता और ये स्थान की अवधारणा से बहुत आगे के लोग होते हैं। बस शर्त ये है कि आदमी भला हो। अगर ऐसा है तो भलाई हर जगह फैल जाती है।

शफ़क़ सुपुरी

वसीम बरेलवी

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है

जाने जाने गुल ही जाने बाग़ तो सारा जाने है

मीर तक़ी मीर

ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम

मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं

इमाम बख़्श नासिख़

मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया

जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया

शकील बदायूनी

तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो

तुम को देखें कि तुम से बात करें

फ़िराक़ गोरखपुरी

बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना

जहाँ दरिया समुंदर से मिला दरिया नहीं रहता

बशीर बद्र

दिल में किसी के राह किए जा रहा हूँ मैं

कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूँ मैं

जिगर मुरादाबादी

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है

जिगर मुरादाबादी

ये थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता

अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता

मिर्ज़ा ग़ालिब

मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है

मिरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है

दाग़ देहलवी

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता

कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता

निदा फ़ाज़ली

इन्हीं पत्थरों पे चल कर अगर सको तो आओ

मिरे घर के रास्ते में कोई कहकशाँ नहीं है

मुस्तफ़ा ज़ैदी

वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे

तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था

दाग़ देहलवी

सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ

ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ

ख़्वाजा मीर दर्द

हमें भी नींद जाएगी हम भी सो ही जाएँगे

अभी कुछ बे-क़रारी है सितारो तुम तो सो जाओ

क़तील शिफ़ाई

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

जिस को भी देखना हो कई बार देखना

निदा फ़ाज़ली

तुम को आता है प्यार पर ग़ुस्सा

मुझ को ग़ुस्से पे प्यार आता है

अमीर मीनाई

नहीं आती तो याद उन की महीनों तक नहीं आती

मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं

हसरत मोहानी

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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