सियासत पर शेर
सियासत पर शायरी एक मानी
में सियासत की मनफ़ी सूरतों का बयानिया है। एक तख़्लीक़-कार अपने आस पास बिखरी हुई दुनिया से बा-ख़बरी की जिस गहरी सतह पर होता है वह एक आम से आदमी के दायरे से बाहर है। इन शेरों में आप देखेंगे कि शायर सियासत, सियासी निज़ाम और सियसतदानों को किस अलग और मुनफ़रिद नुक़्ता-ए-नज़र से देखता है और उन पर तब्सिरा करता है।
इन से उम्मीद न रख हैं ये सियासत वाले
ये किसी से भी मोहब्बत नहीं करने वाले
कुर्सी है तुम्हारा ये जनाज़ा तो नहीं है
कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते
एक आँसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है
तुम ने देखा नहीं आँखों का समुंदर होना
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना
समझने ही नहीं देती सियासत हम को सच्चाई
कभी चेहरा नहीं मिलता कभी दर्पन नहीं मिलता
वो ताज़ा-दम हैं नए शो'बदे दिखाते हुए
अवाम थकने लगे तालियाँ बजाते हुए
इश्क़ में भी सियासतें निकलीं
क़ुर्बतों में भी फ़ासला निकला
धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा है
न पूरे शहर पर छाए तो कहना
काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन को बचा कर
फूलों की सियासत से मैं बेगाना नहीं हूँ
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों
ये सच है रंग बदलता था वो हर इक लम्हा
मगर वही तो बहुत कामयाब चेहरा था
मुझ से क्या बात लिखानी है कि अब मेरे लिए
कभी सोने कभी चाँदी के क़लम आते हैं
नए किरदार आते जा रहे हैं
मगर नाटक पुराना चल रहा है
देखोगे तो हर मोड़ पे मिल जाएँगी लाशें
ढूँडोगे तो इस शहर में क़ातिल न मिलेगा