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रद करें डाउनलोड शेर

किताब पर शेर

किताब को मर्कज़ में रख

कर की जाने वाली शायरी के बहुत से पहलू हैं। किताब महबूब के चेहरे की तशबीह में भी काम आती है और आम इंसानी ज़िंदगी में रौशनी की एक अलामत के तौर पर भी उस को बरता गया है। ये शायरी आपको इस तौर पर भी हैरान करेगी कि हम अपनी आम ज़िंदगी में चीज़ों के बारे में कितना महदूद सोचते हैं और तख़्लीक़ी सतह पर वही छोटी छोटी चीज़ें मानी-ओ-मौज़ूआत के किस क़दर वसी दायरे को जन्म दे देती हैं। किताब के इस हैरत-कदे में दाख़िल होइए।

कमरे में मज़े की रौशनी हो

अच्छी सी कोई किताब देखूँ

मोहम्मद अल्वी

किताब-ए-हुस्न है तू मिल खुली किताब की तरह

यही किताब तो मर मर के मैं ने अज़बर की

शाज़ तमकनत

किस तरह जमा कीजिए अब अपने आप को

काग़ज़ बिखर रहे हैं पुरानी किताब के

आदिल मंसूरी

किताबें भी बिल्कुल मेरी तरह हैं

अल्फ़ाज़ से भरपूर मगर ख़ामोश

अज्ञात

खुली किताब थी फूलों-भरी ज़मीं मेरी

किताब मेरी थी रंग-ए-किताब उस का था

वज़ीर आग़ा

किधर से बर्क़ चमकती है देखें वाइज़

मैं अपना जाम उठाता हूँ तू किताब उठा

जिगर मुरादाबादी

चेहरा खुली किताब है उनवान जो भी दो

जिस रुख़ से भी पढ़ोगे मुझे जान जाओगे

अज्ञात

मज़मून सूझते हैं हज़ारों नए नए

क़ासिद ये ख़त नहीं मिरे ग़म की किताब है

निज़ाम रामपुरी

हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला

किताब का कोई दर्स मो'तबर निकला

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

काग़ज़ में दब के मर गए कीड़े किताब के

दीवाना बे-पढ़े-लिखे मशहूर हो गया

बशीर बद्र

खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए

सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझ को

नज़ीर बाक़री

रख दी है उस ने खोल के ख़ुद जिस्म की किताब

सादा वरक़ पे ले कोई मंज़र उतार दे

प्रेम कुमार नज़र

रहता था सामने तिरा चेहरा खुला हुआ

पढ़ता था मैं किताब यही हर क्लास में

शकेब जलाली

मैं उस के बदन की मुक़द्दस किताब

निहायत अक़ीदत से पढ़ता रहा

मोहम्मद अल्वी

भले ही लाख हवालों के साथ कहते हैं

मगर वो सिर्फ़ किताबों की बात कहते हैं

सदा अम्बालवी

सब किताबों के खुल गए मअ'नी

जब से देखी 'नज़ीर' दिल की किताब

नज़ीर अकबराबादी

कभी आँखें किताब में गुम हैं

कभी गुम है किताब आँखों में

मोहम्मद अल्वी

तुझे किताब से मुमकिन नहीं फ़राग़ कि तू

किताब-ख़्वाँ है मगर साहिब-ए-किताब नहीं

अल्लामा इक़बाल

जिसे पढ़ते तो याद आता था तेरा फूल सा चेहरा

हमारी सब किताबों में इक ऐसा बाब रहता था

असअ'द बदायुनी

उलट रही थीं हवाएँ वरक़ वरक़ उस का

लिखी गई थी जो मिट्टी पे वो किताब था वो

ज़ेब ग़ौरी

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो

ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो

निदा फ़ाज़ली

किताब खोल के देखूँ तो आँख रोती है

वरक़ वरक़ तिरा चेहरा दिखाई देता है

अहमद अक़ील रूबी

भुला दीं हम ने किताबें कि उस परी-रू के

किताबी चेहरे के आगे किताब है क्या चीज़

नज़ीर अकबराबादी

जिस्म तो ख़ाक है और ख़ाक में मिल जाएगा

मैं बहर-हाल किताबों में मिलूँगा तुम को

होश नोमानी रामपुरी

छुपी है अन-गिनत चिंगारियाँ लफ़्ज़ों के दामन में

ज़रा पढ़ना ग़ज़ल की ये किताब आहिस्ता आहिस्ता

प्रेम भण्डारी

सुर्ख़ियों में 'ऐब सारे हाशिए में नेकियाँ

क्या किताब-ए-ज़िंदगी है ज़िंदगी की आड़ में

इरफ़ान शाह नूरी

बारूद के बदले हाथों में जाए किताब तो अच्छा हो

काश हमारी आँखों का इक्कीसवाँ ख़्वाब तो अच्छा हो

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें

इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

जाँ निसार अख़्तर

कुछ और सबक़ हम को ज़माने ने सिखाए

कुछ और सबक़ हम ने किताबों में पढ़े थे

हस्तीमल हस्ती

ये शाइ'री ये किताबें ये आयतें दिल की

निशानियाँ ये सभी तुझ पे वारना होंगी

मोहसिन नक़वी

फ़लसफ़े सारे किताबों में उलझ कर रह गए

दर्स-गाहों में निसाबों की थकन बाक़ी रही

नसीर अहमद नासिर

वफ़ा नज़र नहीं आती कहीं ज़माने में

वफ़ा का ज़िक्र किताबों में देख लेते हैं

हफ़ीज़ बनारसी

वही फ़िराक़ की बातें वही हिकायत-ए-वस्ल

नई किताब का एक इक वरक़ पुराना था

इफ़्तिख़ार आरिफ़

चूम लूँ मैं वरक़ वरक़ उस का

तेरे चेहरे से जो किताब मिले

सदा अम्बालवी

जो पढ़ा है उसे जीना ही नहीं है मुमकिन

ज़िंदगी को मैं किताबों से अलग रखता हूँ

ज़फ़र सहबाई

क़ब्रों में नहीं हम को किताबों में उतारो

हम लोग मोहब्बत की कहानी में मरें हैं

एजाज़ तवक्कल

एक चराग़ और एक किताब और एक उम्मीद असासा

उस के बा'द तो जो कुछ है वो सब अफ़्साना है

इफ़्तिख़ार आरिफ़

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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