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अमीर मीनाई

1829 - 1900 | हैदराबाद, भारत

दाग़ देहलवी के समकालीन। अपनी ग़ज़ल ' सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता ' के लिए प्रसिद्ध हैं।

दाग़ देहलवी के समकालीन। अपनी ग़ज़ल ' सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता ' के लिए प्रसिद्ध हैं।

अमीर मीनाई

ग़ज़ल 44

अशआर 125

आए बुत-ख़ाने से काबे को तो क्या भर पाया

जा पड़े थे तो वहीं हम को पड़ा रहना था

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पहलू में मेरे दिल को दर्द कर तलाश

मुद्दत हुई ग़रीब वतन से निकल गया

माँग लूँ तुझ से तुझी को कि सभी कुछ मिल जाए

सौ सवालों से यही एक सवाल अच्छा है

ये कहूँगा ये कहूँगा ये अभी कहते हो

सामने उन के भी जब हज़रत-ए-दिल याद रहे

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वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर

दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए

नअत 4

 

पुस्तकें 83

चित्र शायरी 21

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Na shauq e wasal ka da_wa

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अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है

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उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ

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उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ

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सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता

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सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता

मेहरान अमरोही

सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता

जाज़म शर्मा

ऑडियो 7

जब से बाँधा है तसव्वुर उस रुख़-ए-पुर-नूर का

हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी

अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है

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