हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए
कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाए
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अब उस मक़ाम पे है मौसमों का सर्द मिज़ाज
कि दिल सुलगने लगे और दिमाग़ जलने लगे
शहर की भीड़ में शामिल है अकेला-पन भी
आज हर ज़ेहन है तन्हाई का मारा देखो
मिरे दाग़-ए-जिगर को फूल कह कर
मुझे काँटों में खींचा जा रहा है
दिमाग़-ओ-दिल की थकान वाला
कड़ा सफ़र है गुमान वाला
नया नया है सो कह लो इसे अकेला-पन
फिर इस मरज़ के कई और नाम आएँगे
बे-दिमाग़-ए-ख़जलत हूँ रश्क-ए-इम्तिहाँ ता-कै
एक बेकसी तुझ को आलम-आश्ना पाया