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ख़ुदी पर शेर

ख़ुदी इंसान के अपने

बातिन और उजूद को पहचानने का एक ज़रिया है। कई शायरों ने ख़ुदी के फ़लसफ़े को मुनज़्ज़म अंदाज़ से अपनी फ़िक्री और तख़्लीक़ी असास के तौर पर बर्ता है। अगर्चे इस तरह के मज़ामीन शायरी में आम रहे हैं लेकिन इक़बाल के यहाँ ये रवय्या हावी है। इस शायरी के पढ़ने से आप को अपनी उजूदी अज़मतों का एहसास भी दिलाएगी।

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले

ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है

अल्लामा इक़बाल

छोड़ा नहीं ख़ुदी को दौड़े ख़ुदा के पीछे

आसाँ को छोड़ बंदे मुश्किल को ढूँडते हैं

अब्दुल हमीद अदम

ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं

तू आबजू इसे समझा अगर तो चारा नहीं

अल्लामा इक़बाल

ब-क़द्र-ए-पैमाना-ए-तख़य्युल सुरूर हर दिल में है ख़ुदी का

अगर हो ये फ़रेब-ए-पैहम तो दम निकल जाए आदमी का

जमील मज़हरी

ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा गया

ख़ुदा बने थे 'यगाना' मगर बना गया

यगाना चंगेज़ी

हमें कम-बख़्त एहसास-ए-ख़ुदी उस दर पे ले बैठा

हम उठ जाते तो वो पर्दा भी उठ जाता जो हाइल था

नातिक़ गुलावठी

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