Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

तंज़ पर शेर

तंज़ के साथ उमूमन मिज़ाह

का लफ़्ज़ जुड़ा होता है क्यूँ कि गहरा तंज़ तभी क़ाबिल-ए-बर्दाश्त और एक मानी में इस्लाही होता है जब उस का इज़हार इस तौर पर किया जाए कि उस के साथ मिज़ाह का उन्सिर भी शामिल हो। तंज़िया पैराए में एक तख़्लीक़-कार अपने आस पास की दुनिया और समाज की ना-हमवारियों को निशाना बनाता है और ऐसे पहलुओं को बे-नक़ाब करता है जिन पर आम ज़िंदगी में नज़र नहीं जाती और जाती भी है तो उन पर बात करने का हौसला नहीं होता।

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन

दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है

मिर्ज़ा ग़ालिब

हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए

बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए

अकबर इलाहाबादी

लीडरों की धूम है और फॉलोवर कोई नहीं

सब तो जेनरेल हैं यहाँ आख़िर सिपाही कौन है

अकबर इलाहाबादी

रखना है कहीं पाँव तो रक्खो हो कहीं पाँव

चलना ज़रा आया है तो इतराए चलो हो

कलीम आजिज़

पी लेंगे ज़रा शैख़ तो कुछ गर्म रहेंगे

ठंडा कहीं कर दें ये जन्नत की हवाएँ

अर्श मलसियानी

उठते हुओं को सब ने सहारा दिया 'कलीम'

गिरते हुए ग़रीब सँभाले कहाँ गए

कलीम आजिज़

हज्व ने तो तिरा शैख़ भरम खोल दिया

तू तो मस्जिद में है निय्यत तिरी मय-ख़ाने में

जिगर मुरादाबादी

सुनेगा कौन मेरी चाक-दामानी का अफ़्साना

यहाँ सब अपने अपने पैरहन की बात करते हैं

कलीम आजिज़

कहती है 'रियाज़' दराज़ी ये रीश की

टट्टी की आड़ में है मज़ा कुछ शिकार का

रियाज़ ख़ैराबादी

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ

रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ

अकबर इलाहाबादी

शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें

मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें

अकबर इलाहाबादी

हुए इस क़दर मोहज़्ज़ब कभी घर का मुँह देखा

कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जा कर

अकबर इलाहाबादी

आशिक़ी का हो बुरा उस ने बिगाड़े सारे काम

हम तो ए.बी में रहे अग़्यार बी.ए हो गए

अकबर इलाहाबादी

कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है

सब ने इंसान बनने की क़सम खाई है

निदा फ़ाज़ली

मय भी होटल में पियो चंदा भी दो मस्जिद में

शैख़ भी ख़ुश रहें शैतान भी बे-ज़ार हो

अकबर इलाहाबादी

बात तक करनी आती थी तुम्हें

ये हमारे सामने की बात है

दाग़ देहलवी

रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में

कि 'अकबर' नाम लेता है ख़ुदा का इस ज़माने में

अकबर इलाहाबादी

मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से

जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं

अमीर मीनाई

सुना ये है बना करते हैं जोड़े आसमानों पर

तो ये समझें कि हर बीवी बला-ए-आसमानी है

अहमद अल्वी

मुट्ठियों में ख़ाक ले कर दोस्त आए वक़्त-ए-दफ़्न

ज़िंदगी भर की मोहब्बत का सिला देने लगे

साक़िब लखनवी

हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं

कि जिन को पढ़ के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं

अकबर इलाहाबादी

दिल ख़ुश हुआ है मस्जिद-ए-वीराँ को देख कर

मेरी तरह ख़ुदा का भी ख़ाना ख़राब है

व्याख्या

इस शे’र में शायर ने ख़ुदा से मज़ाक़ किया है जो उर्दू ग़ज़ल की परंपरा रही है। शायर अल्लाह पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि तुम्हारे बंदों ने तुम्हारी इबादत करना छोड़ दी है जिसकी वजह से मस्जिद वीरान हो गई है। चूँकि तुमने मेरी क़िस्मत में ख़ाना-ख़राबी लिखी थी तो अब तुम्हारा उजड़ा हुआ घर देखकर मेरा दिल ख़ुश हुआ है।

शफ़क़ सुपुरी

अब्दुल हमीद अदम

मरऊब हो गए हैं विलायत से शैख़-जी

अब सिर्फ़ मनअ करते हैं देसी शराब को

अकबर इलाहाबादी

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

Get Tickets
बोलिए