मजबूरी पर शेर
मजबूरी ज़िंदगी में तसलसुल
के साथ पेश आने वाली एक सूरत-ए-हाल है जिस में इंसान की जो थोड़ी बहोत ख़ुद-मुख़्तारियत है वो भी ख़त्म हो जाती और इंसान पूरी तरह से मजबूर हो जाता है और यहीं से वो शायरी पैदा होती है जिस में बाज़ मर्तबा एहतिजाज भी होता है और बाज़ मर्तबा हालात के मुक़ाबले में सिपर अंदाज़ होने की कैफ़ियत भी। हम इस तरह के शेरों का एक छोटा सा इंतिख़ाब पेश कर रहे हैं।
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
तेरी मजबूरियाँ दुरुस्त मगर
तू ने वादा किया था याद तो कर
ये मेरे इश्क़ की मजबूरियाँ मआज़-अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं
ज़िंदगी है अपने क़ब्ज़े में न अपने बस में मौत
आदमी मजबूर है और किस क़दर मजबूर है
कुर्सी है तुम्हारा ये जनाज़ा तो नहीं है
कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते
हाए रे मजबूरियाँ महरूमियाँ नाकामियाँ
इश्क़ आख़िर इश्क़ है तुम क्या करो हम क्या करें
मिरी मजबूरियाँ क्या पूछते हो
कि जीने के लिए मजबूर हूँ मैं
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
हाए 'सीमाब' उस की मजबूरी
जिस ने की हो शबाब में तौबा
ज़िंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं
हाए इस क़ैद को ज़ंजीर भी दरकार नहीं
क्या मस्लहत-शनास था वो आदमी 'क़तील'
मजबूरियों का जिस ने वफ़ा नाम रख दिया
एहसान ज़िंदगी पे किए जा रहे हैं हम
मन तो नहीं है फिर भी जिए जा रहे हैं हम
वहशतें इश्क़ और मजबूरी
क्या किसी ख़ास इम्तिहान में हूँ
जो कुछ पड़ती है सर पर सब उठाता है मोहब्बत में
जहाँ दिल आ गया फिर आदमी मजबूर होता है
मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा
मिरे लिए तो कोई और रास्ता भी नहीं
न-जाने कौन सी मजबूरियाँ हैं जिन के लिए
ख़ुद अपनी ज़ात से इंकार करना पड़ता है
आज़ादियों के शौक़ ओ हवस ने हमें 'अदील'
इक अजनबी ज़मीन का क़ैदी बना दिया
दुश्मन मुझ पर ग़ालिब भी आ सकता है
हार मिरी मजबूरी भी हो सकती है
रस्म-ओ-रिवाज छोड़ के सब आ गए यहाँ
रक्खी हुई हैं ताक़ में अब ग़ैरतें तमाम