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राज़ पर शेर

ज़िन्दगी में बहुत कुछ

ऐसा होता है जिसे इन्सान औरों से तो क्या ख़ुद से भी पोशीदा रखना चाहता है। ऐसे राज़ को सीने में छुपाए रखने की मुसलसल कोशिशें शायरी में भी अलग-अलग सूरतों में सामने आती रही हैं। यह राज़ अगर आशिक़ के सीने में हो तो मसअला और संगीन हो जाता है। आइये नज़र डालते हैं रेख़्ता के इस इन्तिख़ाब परः

दफ़्न कर सकता हूँ सीने में तुम्हारे राज़ को

और तुम चाहो तो अफ़्साना बना सकता हूँ मैं

असरार-उल-हक़ मजाज़

ये मेरे इश्क़ की मजबूरियाँ मआज़-अल्लाह

तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं

असरार-उल-हक़ मजाज़

जिन को अपनी ख़बर नहीं अब तक

वो मिरे दिल का राज़ क्या जानें

दाग़ देहलवी

कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन

जब तक उलझे काँटों से दामन

फ़ना निज़ामी कानपुरी

हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ

दिल सँभाले रहो ज़बाँ की तरह

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तेरा हर राज़ छुपाए हुए बैठा है कोई

ख़ुद को दीवाना बनाए हुए बैठा है कोई

अख़्तर सिद्दीक़ी

दामन अश्कों से तर करें क्यूँ-कर

राज़ को मुश्तहर करें क्यूँ-कर

मुबारक अज़ीमाबादी

कोई किस तरह राज़-ए-उल्फ़त छुपाए

निगाहें मिलीं और क़दम डगमगाए

नख़्शब जार्चवि

ग़ैरों पे खुल जाए कहीं राज़ देखना

मेरी तरफ़ भी ग़म्ज़ा-ए-ग़म्माज़ देखना

मोमिन ख़ाँ मोमिन

उन से सब हाल दग़ाबाज़ कहे देते हैं

मेरे हमराज़ मिरा राज़ कहे देते हैं

नूह नारवी

अपना ही हाल तक खुला मुझ को ता-ब-मर्ग

मैं कौन हूँ कहाँ से चला था कहाँ गया

हैरत इलाहाबादी

हाए वो राज़-ए-ग़म कि जो अब तक

तेरे दिल में मिरी निगाह में है

जिगर मुरादाबादी

मैं मोहब्बत छुपाऊँ तू अदावत छुपा

यही राज़ में अब है वही राज़ में है

कलीम आजिज़

ब-पास-ए-दिल जिसे अपने लबों से भी छुपाया था

मिरा वो राज़ तेरे हिज्र ने पहुँचा दिया सब तक

क़तील शिफ़ाई

ज़बान दहन से जो खुलते नहीं हैं

वो खुल जाते हैं राज़ अक्सर नज़र से

अम्न लख़नवी

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