राज़ पर शेर
ज़िन्दगी में बहुत कुछ
ऐसा होता है जिसे इन्सान औरों से तो क्या ख़ुद से भी पोशीदा रखना चाहता है। ऐसे राज़ को सीने में छुपाए रखने की मुसलसल कोशिशें शायरी में भी अलग-अलग सूरतों में सामने आती रही हैं। यह राज़ अगर आशिक़ के सीने में हो तो मसअला और संगीन हो जाता है। आइये नज़र डालते हैं रेख़्ता के इस इन्तिख़ाब परः
दफ़्न कर सकता हूँ सीने में तुम्हारे राज़ को
और तुम चाहो तो अफ़्साना बना सकता हूँ मैं
ये मेरे इश्क़ की मजबूरियाँ मआज़-अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं
जिन को अपनी ख़बर नहीं अब तक
वो मिरे दिल का राज़ क्या जानें
कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन
जब तक उलझे न काँटों से दामन
हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ
दिल सँभाले रहो ज़बाँ की तरह
तेरा हर राज़ छुपाए हुए बैठा है कोई
ख़ुद को दीवाना बनाए हुए बैठा है कोई
दामन अश्कों से तर करें क्यूँ-कर
राज़ को मुश्तहर करें क्यूँ-कर
कोई किस तरह राज़-ए-उल्फ़त छुपाए
निगाहें मिलीं और क़दम डगमगाए
ग़ैरों पे खुल न जाए कहीं राज़ देखना
मेरी तरफ़ भी ग़म्ज़ा-ए-ग़म्माज़ देखना
अपना ही हाल तक न खुला मुझ को ता-ब-मर्ग
मैं कौन हूँ कहाँ से चला था कहाँ गया
हाए वो राज़-ए-ग़म कि जो अब तक
तेरे दिल में मिरी निगाह में है
मैं मोहब्बत न छुपाऊँ तू अदावत न छुपा
न यही राज़ में अब है न वही राज़ में है
ब-पास-ए-दिल जिसे अपने लबों से भी छुपाया था
मिरा वो राज़ तेरे हिज्र ने पहुँचा दिया सब तक
ज़बान ओ दहन से जो खुलते नहीं हैं
वो खुल जाते हैं राज़ अक्सर नज़र से