Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

वहशत पर शेर

वहशत पर ये शायरी आप

के लिए आशिक़ की शख़्सियत के एक दिल-चस्प पहलू का हैरान-कुन बयान साबित होगी। आप देखेंगे कि आशिक़ जुनून और दीवानगी की आख़िरी हद पर पहुँच कर किया करता है। और किस तरह वो वहशत करने के लिए सहराओं में निकल पड़ता है।

इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही

मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही

मिर्ज़ा ग़ालिब

घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ

शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है

इफ़्तिख़ार आरिफ़

लोग कहते हैं कि तुम से ही मोहब्बत है मुझे

तुम जो कहते हो कि वहशत है तो वहशत होगी

अब्दुल हमीद अदम

बचपन में हम ही थे या था और कोई

वहशत सी होने लगती है यादों से

अब्दुल अहद साज़

ऐसे डरे हुए हैं ज़माने की चाल से

घर में भी पाँव रखते हैं हम तो सँभाल कर

आदिल मंसूरी

जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है

कितनी वहशत हिज्र की लम्बी रात में होती है

शहरयार

कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम

कुछ मेरी वहशतों ने मुझे दर-ब-दर किया

साबिर ज़फ़र

मेरे माथे पे उभर आते थे वहशत के नुक़ूश

मेरी मिट्टी किसी सहरा से उठाई गई थी

क़मर अब्बास क़मर

अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले

दश्त पड़ता है मियाँ इश्क़ में घर से पहले

इब्न-ए-इंशा

फिर वही लम्बी दो-पहरें हैं फिर वही दिल की हालत है

बाहर कितना सन्नाटा है अंदर कितनी वहशत है

ऐतबार साजिद

दयार-ए-नूर में तीरा-शबों का साथी हो

कोई तो हो जो मिरी वहशतों का साथी हो

इफ़्तिख़ार आरिफ़

वो जो इक शर्त थी वहशत की उठा दी गई क्या

मेरी बस्ती किसी सहरा में बसा दी गई क्या

इरफ़ान सिद्दीक़ी

सौदा-ए-इश्क़ और है वहशत कुछ और शय

मजनूँ का कोई दोस्त फ़साना-निगार था

बेख़ुद देहलवी

वहशतें इश्क़ और मजबूरी

क्या किसी ख़ास इम्तिहान में हूँ

ख़ुर्शीद रब्बानी

वो काम रह के करना पड़ा शहर में हमें

मजनूँ को जिस के वास्ते वीराना चाहिए

अमीर इमाम

वो जिस के नाम की निस्बत से रौशनी था वजूद

खटक रहा है वही आफ़्ताब आँखों में

इफ़्तिख़ार आरिफ़

हो सके क्या अपनी वहशत का इलाज

मेरे कूचे में भी सहरा चाहिए

दाग़ देहलवी

वहशतें कुछ इस तरह अपना मुक़द्दर बन गईं

हम जहाँ पहुँचे हमारे साथ वीराने गए

ख़ातिर ग़ज़नवी

बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत वहशत की है धूप 'ज़िया'

चारों जानिब वीरानी है दिल का इक वीराना क्या

अहमद ज़िया

इश्क़ पर फ़ाएज़ हूँ औरों की तरह लेकिन मुझे

वस्ल का लपका नहीं है हिज्र से वहशत नहीं

ग़ुलाम हुसैन साजिद

हम वहशत में अपने घर से निकले

सहरा अपनी वीरानी से निकला

काशिफ़ हुसैन ग़ाएर

इन दिनों अपनी भी वहशत का अजब आलम है

घर में हम दश्त-ओ-बयाबान उठा लाए हैं

शाहिद कमाल

मजनूँ से ये कहना कि मिरे शहर में जाए

वहशत के लिए एक बयाबान अभी है

क़मर अब्बास क़मर

वहशत का ये आलम कि पस-ए-चाक गरेबाँ

रंजिश है बहारों से उलझते हैं ख़िज़ाँ से

जावेद सबा

इक दिन दुख की शिद्दत कम पड़ जाती है

कैसी भी हो वहशत कम पड़ जाती है

काशिफ़ हुसैन ग़ाएर

होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी

बरहम हुई है यूँ भी तबीअत कभी कभी

नासिर काज़मी

वहशत-ए-दिल ने किया है वो बयाबाँ पैदा

सैकड़ों कोस नहीं सूरत-ए-इंसाँ पैदा

हैदर अली आतिश

जिस्म थकता नहीं चलने से कि वहशत का सफ़र

ख़्वाब में नक़्ल-ए-मकानी की तरह होता है

फ़ैसल अजमी

मुझे बचा ले मिरे यार सोज़-ए-इमशब से

कि इक सितारा-ए-वहशत जबीं से गुज़रेगा

क़मर अब्बास क़मर

'शाद' इतनी बढ़ गई हैं मेरे दिल की वहशतें

अब जुनूँ में दश्त और घर एक जैसे हो गए

ख़ुशबीर सिंह शाद

हम तिरे साए में कुछ देर ठहरते कैसे

हम को जब धूप से वहशत नहीं करनी आई

आबिदा करामत

फ़स्ल-ए-गुल आते ही वहशत हो गई

फिर वही अपनी तबीअत हो गई

लाला माधव राम जौहर

ये खचा-खच भरी हुई वहशत

बे-बसों को बसों से ख़ौफ़ आया

इमरान शमशाद नरमी

वाए क़िस्मत सबब इस का भी ये वहशत ठहरी

दर-ओ-दीवार में रह कर भी मैं बे-घर निकला

अदील ज़ैदी

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

Get Tickets
बोलिए