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हिज्र पर शेर

अगर आप हिज्र की हालत

में हैं तो ये शायरी आप के लिए ख़ास है। इस शायरी को पढ़ते हुए हिज्र की पीड़ा एक मज़ेदार तजुर्बे में बदलने लगेगी। ये शायरी पढ़िए, हिज्र और हिज्र ज़दा दिलों का तमाशा देखिए।

इश्क़ पर फ़ाएज़ हूँ औरों की तरह लेकिन मुझे

वस्ल का लपका नहीं है हिज्र से वहशत नहीं

ग़ुलाम हुसैन साजिद

मालूम थीं मुझे तिरी मजबूरियाँ मगर

तेरे बग़ैर नींद आई तमाम रात

अज्ञात

मत देख कि फिरता हूँ तिरे हिज्र में ज़िंदा

ये पूछ कि जीने में मज़ा है कि नहीं है

कैफ़ भोपाली

'फ़राज़' इश्क़ की दुनिया तो ख़ूब-सूरत थी

ये किस ने फ़ित्ना-ए-हिज्र-ओ-विसाल रक्खा है

अहमद फ़राज़

बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है

उसे गले से लगाए ज़माना हो गया है

इरफ़ान सिद्दीक़ी

तुझ हिज्र की अगन कूँ बूझाने संग दिल

कोई आब-ज़न-रफ़ीक़ ब-जुज़ चश्म-ए-तर नहीं

मिर्ज़ा दाऊद बेग

देख ले बुलबुल परवाना की बेताबी को

हिज्र अच्छा हसीनों का विसाल अच्छा है

अमीर मीनाई

हिज्र विसाल चराग़ हैं दोनों तन्हाई के ताक़ों में

अक्सर दोनों गुल रहते हैं और जला करता हूँ मैं

फ़रहत एहसास

तुम्हारे हिज्र में क्यूँ ज़िंदगी मुश्किल हो

तुम्हीं जिगर हो तुम्हीं जान हो तुम्हीं दिल हो

अफ़सर इलाहाबादी

शब-ए-हिज्र थी और मैं रो रहा था

कोई जागता था कोई सो रहा था

जुरअत क़लंदर बख़्श

इश्क़ में निस्बत नहीं बुलबुल को परवाने के साथ

वस्ल में वो जान दे ये हिज्र में जीती रहे

जाफ़र अली खां ज़की

तिरे आने का धोका सा रहा है

दिया सा रात भर जलता रहा है

नासिर काज़मी

दिल हिज्र के दर्द से बोझल है अब आन मिलो तो बेहतर हो

इस बात से हम को क्या मतलब ये कैसे हो ये क्यूँकर हो

इब्न-ए-इंशा

उस से मिलने की ख़ुशी ब'अद में दुख देती है

जश्न के ब'अद का सन्नाटा बहुत खलता है

मुईन शादाब

तुम से बिछड़ कर ज़िंदा हैं

जान बहुत शर्मिंदा हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ का क़िस्सा पूछिए

महशर तलक कहूँ मैं अगर मुख़्तसर कहूँ

अमीर मीनाई

जो ग़ज़ल आज तिरे हिज्र में लिक्खी है वो कल

क्या ख़बर अहल-ए-मोहब्बत का तराना बन जाए

अहमद फ़राज़

कड़ा है दिन बड़ी है रात जब से तुम नहीं आए

दिगर-गूँ हैं मिरे हालात जब से तुम नहीं आए

अनवर शऊर

काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई पूछ

सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का

व्याख्या

उर्दू शायरी में यूँ तो तन्हाई कोई नया मौज़ू नहीं है लेकिन हर शायर की तन्हाई अलग रंग की होती है, बुनियादी जज़्बात दर अस्ल एक से होते हैं मगर एक ही ख़मीर अलग अलग साँचे में ढल कर जुदा जुदा रूप में ज़ाहिर होता है।

ग़ालिब का ये शेर देखिए, ये शेर तन्हाई के कर्ब को एक अलग ही शिद्दत देता है।

तन्हा होने पर इंसान का वक़्त काटना मुश्किल हो जाता है, ये ज़ाहिर सी बात है।

लेकिन तन्हाई में जब किसी की जुदाई शामिल हो, तब वो तन्हाई इंसान को कितनी गिराँ गुज़रती है ये देखिए,

काव काव-ए-सख़्त जानी हाए तन्हाई पूछ

तन्हाई में वक़्त गुज़ारने की मुश्किलें पूछ, मुश्किलों को झेलना काव-काव से ज़ाहिर किया है।

काव-काव यानी खोदना, काविश लफ़्ज़ इसी से जुड़ा है।

इस शेर में काव-काव की आवाज़ भी ख़ूब काम कर रही है, बेख़ुद मोहानी के नज़दीक ग़ालिब ने इसे ऐसे इस्तिमाल किया है कि यह इस्म-ए-सौत बन गया है और इसे ग़ालिब की ही ईजाद कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी में इसी को आनामाटापिया कहते हैं हालाँकि ये पूरी तरह इस्म-ए-सौत है ही आनामाटापिया।

इस से हमें एक इशारा भी मिलता है, तन्हाई की ज़िंदगी काटना इतना मुश्किल है जैसे लगातार पत्थर खोदना।

खोदने या पत्थर तोड़ने से बहुत मुमकिन है कि हमारा ज़हन उस किरदार की तरफ़ जाए जिस का नाम भी इसी वजह से "कोहकन" है।

पहले मिसरे से हमें कोहकन की तरफ़ हल्का सा इशारा मिलता है, अगला मिसरा देखिए,

सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का

अब अगर आप कोहकन (फ़रहाद) के क़िस्से से वाक़िफ़ हैं तो शेर में जो तल्मीह है वो समझ चुके होंगे।

वाक़िफ़ नहीं हैं तो मुख़्तसर क़िस्सा ये है कि फ़रहाद के शीरीं से मिलने की शर्त रखी गयी थी।

शर्त थी कि फ़रहाद अगर पहाड़ खोद‌-तोड़ कर जू-ए-शीर यानी दूध की नदी इस पार ले आएगा तो शीरीं उस की होगी।

फ़रहाद पहाड़ खोद कर जू-ए-शीर तो ले आया लेकिन उससे कहा गया कि शीरीं मर चुकी है, ये ख़बर सुनते ही फ़रहाद भी अपने सर पर तेशा मार कर मर गया।

फ़रहाद को इसी वाक़ेऐ के बाद कोहकन कहा जाने लगा।

ग़ालिब ने ख़ुद को फ़रहाद की जगह रखा है। शाम से सुब्ह तक के वक़्त को पहाड़ माना है, अब इस शाम से अगली सुब्ह तक पहुँचना मानो फ़रहाद का पहाड़ तोड़ना ही है।

जोश मलीहाबादी कहते हैं कि इस में एक नुक्ता यह भी है कि फ़रहाद पहाड़ तोड़ने के बाद मर गया था, तो एक इशारा ये भी है कि शाम से सुब्ह करने में अब जान ही जाएगी।

सब समझ कर शे'र को फिर से पढ़िए और देखिए कि लुत्फ़ दो-बाला हुआ कि नहीं?

काव काव-ए-सख़्त जानी हाए तन्हाई पूछ

सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का

प्रियंवदा इल्हान

मिर्ज़ा ग़ालिब

उस संग-दिल के हिज्र में चश्मों को अपने आह

मानिंद-ए-आबशार किया हम ने क्या किया

इंशा अल्लाह ख़ान इंशा

जिस की आँखों में कटी थीं सदियाँ

उस ने सदियों की जुदाई दी है

गुलज़ार

तिरा वस्ल है मुझे बे-ख़ुदी तिरा हिज्र है मुझे आगही

तिरा वस्ल मुझ को फ़िराक़ है तिरा हिज्र मुझ को विसाल है

जलालुद्दीन अकबर

साँस लेने में दर्द होता है

अब हवा ज़िंदगी की रास नहीं

जिगर बरेलवी

मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ में तुझ को तलाश करता हूँ

सवाल में नहीं आता जवाब में

करामत अली करामत

'मुनीर' अच्छा नहीं लगता ये तेरा

किसी के हिज्र में बीमार होना

मुनीर नियाज़ी

हम कहाँ और तुम कहाँ जानाँ

हैं कई हिज्र दरमियाँ जानाँ

जौन एलिया

शिकवा-ए-हिज्र पे सर काट के फ़रमाते हैं

फिर करोगे कभी इस मुँह से शिकायत मेरी

फ़ानी बदायुनी

तुम नहीं पास कोई पास नहीं

अब मुझे ज़िंदगी की आस नहीं

जिगर बरेलवी

रोते फिरते हैं सारी सारी रात

अब यही रोज़गार है अपना

मीर तक़ी मीर

नींद आती नहीं तो सुबह तलक

गर्द-ए-महताब का सफ़र देखो

नासिर काज़मी

आई होगी किसी को हिज्र में मौत

मुझ को तो नींद भी नहीं आती

अकबर इलाहाबादी

मिरी नज़र में वही मोहनी सी मूरत है

ये रात हिज्र की है फिर भी ख़ूब-सूरत है

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

देख कर तूल-ए-शब-ए-हिज्र दुआ करता हूँ

वस्ल के रोज़ से भी उम्र मिरी कम हो जाए

मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

क्यूँ हिज्र के शिकवे करता है क्यूँ दर्द के रोने रोता है

अब इश्क़ किया तो सब्र भी कर इस में तो यही कुछ होता है

हफ़ीज़ जालंधरी

वो भला कैसे बताए कि ग़म-ए-हिज्र है क्या

जिस को आग़ोश-ए-मोहब्बत कभी हासिल हुआ

हबीब अहमद सिद्दीक़ी

वो रहे हैं वो आते हैं रहे होंगे

शब-ए-फ़िराक़ ये कह कर गुज़ार दी हम ने

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

यूँ गुज़रते हैं हिज्र के लम्हे

जैसे वो बात करते जाते हैं

महेश चंद्र नक़्श

कैसी बिपता पाल रखी है क़ुर्बत की और दूरी की

ख़ुशबू मार रही है मुझ को अपनी ही कस्तूरी की

नईम सरमद

मिलने की ये कौन घड़ी थी

बाहर हिज्र की रात खड़ी थी

अहमद मुश्ताक़

किसी के हिज्र में जीना मुहाल हो गया है

किसे बताएँ हमारा जो हाल हो गया है

अजमल सिराज

गुज़र तो जाएगी तेरे बग़ैर भी लेकिन

बहुत उदास बहुत बे-क़रार गुज़रेगी

अज्ञात

बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा'लूम

जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई

फ़िराक़ गोरखपुरी

हर इश्क़ के मंज़र में था इक हिज्र का मंज़र

इक वस्ल का मंज़र किसी मंज़र में नहीं था

अक़ील अब्बास जाफ़री

तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो

मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो

जौन एलिया

मैं तेरे हिज्र में जीने से हो गया था उदास

पे गर्म-जोशी से क्या क्या मनाया अश्क मिरा

बाक़र आगाह वेलोरी

कहने को ग़म-ए-हिज्र बड़ा दुश्मन-ए-जाँ है

पर दोस्त भी इस दोस्त से बेहतर नहीं मिलता

नसीर तुराबी

तारों का गो शुमार में आना मुहाल है

लेकिन किसी को नींद आए तो क्या करे

हामिदुल्लाह अफ़सर

मिरी ज़िंदगी तो गुज़री तिरे हिज्र के सहारे

मिरी मौत को भी प्यारे कोई चाहिए बहाना

जिगर मुरादाबादी

जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है

कितनी वहशत हिज्र की लम्बी रात में होती है

शहरयार

उसे ख़बर थी कि हम विसाल और हिज्र इक साथ चाहते हैं

तो उस ने आधा उजाड़ रक्खा है और आधा बना दिया है

फ़रहत एहसास

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