क़मर अब्बास क़मर
ग़ज़ल 6
नज़्म 1
अशआर 17
तिश्ना-लब ऐसा कि होंटों पे पड़े हैं छाले
मुतमइन ऐसा हूँ दरिया को भी हैरानी है
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मेरे माथे पे उभर आते थे वहशत के नुक़ूश
मेरी मिट्टी किसी सहरा से उठाई गई थी
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पहाड़ पेड़ नदी साथ दे रहे हैं मिरा
ये तेरी ओर मिरा आख़िरी सफ़र तो नहीं
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मजनूँ से ये कहना कि मिरे शहर में आ जाए
वहशत के लिए एक बयाबान अभी है
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