आदिल मंसूरी
ग़ज़ल 38
नज़्म 42
अशआर 47
किस तरह जमा कीजिए अब अपने आप को
काग़ज़ बिखर रहे हैं पुरानी किताब के
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दरिया के किनारे पे मिरी लाश पड़ी थी
और पानी की तह में वो मुझे ढूँड रहा था
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मुझे पसंद नहीं ऐसे कारोबार में हूँ
ये जब्र है कि मैं ख़ुद अपने इख़्तियार में हूँ
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लहू में उतरती रही चाँदनी
बदन रात का कितना ठंडा लगा
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वो तुम तक कैसे आता
जिस्म से भारी साया था
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