साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल 47
अशआर 49
शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
ज़िंदगी मैं तुझे नाकाम न होने दूँगा
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मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
किवाड़ रात को घर का अगर खुला रह जाए
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उम्र भर लिखते रहे फिर भी वरक़ सादा रहा
जाने क्या लफ़्ज़ थे जो हम से न तहरीर हुए
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मिलूँ तो कैसे मिलूँ बे-तलब किसी से मैं
जिसे मिलूँ वो कहे मुझ से कोई काम था क्या
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कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
कुछ मेरी वहशतों ने मुझे दर-ब-दर किया
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वीडियो 5
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