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अहमद ज़िया

अहमद ज़िया

ग़ज़ल 9

अशआर 8

इक मैं हूँ कि लहरों की तरह चैन नहीं है

इक वो है कि ख़ामोश समुंदर की तरह है

है मेरा चेहरा सैकड़ों चेहरों का आईना

बेज़ार हो गया हूँ तमाशाइयों से मैं

बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत वहशत की है धूप 'ज़िया'

चारों जानिब वीरानी है दिल का इक वीराना क्या

मुझ को मिरे वजूद से कोई निकाल दे

तंग चुका हूँ रोज़ के इन हादसों से मैं

इस क़दर पुर-ख़ुलूस लहजा है

उस से मिलना है उम्र भर जैसे

पुस्तकें 2

 

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