सदा अम्बालवी
ग़ज़ल 115
नज़्म 38
अशआर 37
वक़्त हर ज़ख़्म का मरहम तो नहीं बन सकता
दर्द कुछ होते हैं ता-उम्र रुलाने वाले
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बड़ा घाटे का सौदा है 'सदा' ये साँस लेना भी
बढ़े है उम्र ज्यूँ-ज्यूँ ज़िंदगी कम होती जाती है
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बुझ गई शम्अ की लौ तेरे दुपट्टे से तो क्या
अपनी मुस्कान से महफ़िल को मुनव्वर कर दे
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अपनी उर्दू तो मोहब्बत की ज़बाँ थी प्यारे
उफ़ सियासत ने उसे जोड़ दिया मज़हब से
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अब कहाँ दोस्त मिलें साथ निभाने वाले
सब ने सीखे हैं अब आदाब ज़माने वाले
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वीडियो 120
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