ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल 42
नज़्म 8
अशआर 48
करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम
मुझे तो और कोई काम भी नहीं आता
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गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
इस शहर का हर रहने वाला क्यूँ दूसरे शहर में रहता है
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ये भी इक रंग है शायद मिरी महरूमी का
कोई हँस दे तो मोहब्बत का गुमाँ होता है
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तुम यूँ ही नाराज़ हुए हो वर्ना मय-ख़ाने का पता
हम ने हर उस शख़्स से पूछा जिस के नैन नशीले थे
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बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
ऐ काश हमारी आँखों का इक्कीसवाँ ख़्वाब तो अच्छा हो
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