शाज़ तमकनत
ग़ज़ल 68
नज़्म 15
अशआर 11
मिरा ज़मीर बहुत है मुझे सज़ा के लिए
तू दोस्त है तो नसीहत न कर ख़ुदा के लिए
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कभी ज़ियादा कभी कम रहा है आँखों में
लहू का सिलसिला पैहम रहा है आँखों में
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ज़िंदगी हम से तिरे नाज़ उठाए न गए
साँस लेने की फ़क़त रस्म अदा करते थे
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कोई तो आ के रुला दे कि हँस रहा हूँ मैं
बहुत दिनों से ख़ुशी को तरस रहा हूँ मैं
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