aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1946 | भोपाल, भारत
जो पढ़ा है उसे जीना ही नहीं है मुमकिन
ज़िंदगी को मैं किताबों से अलग रखता हूँ
झूट भी सच की तरह बोलना आता है उसे
कोई लुक्नत भी कहीं पर नहीं आने देता
दिलों के बीच न दीवार है न सरहद है
दिखाई देते हैं सब फ़ासले नज़र के मुझे
ख़ुदा-ए-अम्न जो कहता है ख़ुद को
ज़मीं पर ख़ुद ही मक़्तल लिख रहा है
जब अधूरे चाँद की परछाईं पानी पर पड़ी
रौशनी इक ना-मुकम्मल सी कहानी पर पड़ी
Aah Se Wah Tak
1986
Dasht-e-Maani
1985
1987
Dhoop Ke Phool
1977
Khushbu Nazar Aaye
Lafzon Ke parindey
नग़्मा-ए-शुऊर
1967
Shumara Number-002
1980
जो पढ़ा है उसे जीना ही नहीं है मुमकिन ज़िंदगी को मैं किताबों से अलग रखता हूँ
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