इज़हार पर शेर
शायरी में लफ़्ज़ ‘इज़हार’
सिर्फ ‘बताना’ था ‘जताना’ नहीः उर्दू शायरी में यह बुनियादी तौर पर इश्क़ का इज़हार है जो कभी कशमकश की नज़्र हो जाता है तो कभी कामयाबी के सातवें आसमान की सैर करा लाता है। इन लम्हों को हम सब ने जिया है इसलिए इज़हार शायरी का यह गुलदस्ता हाज़िर है रेख़्ता की जानिब।
मुझे अब तुम से डर लगने लगा है
तुम्हें मुझ से मोहब्बत हो गई क्या
ये कहना था उन से मोहब्बत है मुझ को
ये कहने में मुझ को ज़माने लगे हैं
इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है
पर करूँ क्या अब तबीअत आप पर आई तो है
एक दिन कह लीजिए जो कुछ है दिल में आप के
एक दिन सुन लीजिए जो कुछ हमारे दिल में है
हाल-ए-दिल क्यूँ कर करें अपना बयाँ अच्छी तरह
रू-ब-रू उन के नहीं चलती ज़बाँ अच्छी तरह
तुझ से किस तरह मैं इज़हार-ए-तमन्ना करता
लफ़्ज़ सूझा तो मआ'नी ने बग़ावत कर दी
सब कुछ हम उन से कह गए लेकिन ये इत्तिफ़ाक़
कहने की थी जो बात वही दिल में रह गई
ज़बाँ ख़ामोश मगर नज़रों में उजाला देखा
उस का इज़हार-ए-मोहब्बत भी निराला देखा
और इस से पहले कि साबित हो जुर्म-ए-ख़ामोशी
हम अपनी राय का इज़हार करना चाहते हैं
मुझ से नफ़रत है अगर उस को तो इज़हार करे
कब मैं कहता हूँ मुझे प्यार ही करता जाए
दिल पे कुछ और गुज़रती है मगर क्या कीजे
लफ़्ज़ कुछ और ही इज़हार किए जाते हैं
इज़हार-ए-इश्क़ उस से न करना था 'शेफ़्ता'
ये क्या किया कि दोस्त को दुश्मन बना दिया
कीजे इज़हार-ए-मोहब्बत चाहे जो अंजाम हो
ज़िंदगी में ज़िंदगी जैसा कोई तो काम हो
कोई मिला ही नहीं जिस से हाल-ए-दिल कहते
मिला तो रह गए लफ़्ज़ों के इंतिख़ाब में हम
इज़हार पे भारी है ख़मोशी का तकल्लुम
हर्फ़ों की ज़बाँ और है आँखों की ज़बाँ और
इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए
आप को चेहरे से भी बीमार होना चाहिए
हाल-ए-दिल सुनते नहीं ये कह के ख़ुश कर देते हैं
फिर कभी फ़ुर्सत में सुन लेंगे कहानी आप की
हाल-ए-दिल यार को महफ़िल में सुनाएँ क्यूँ-कर
मुद्दई कान इधर और उधर रखते हैं
दिल सभी कुछ ज़बान पर लाया
इक फ़क़त अर्ज़-ए-मुद्दआ के सिवा
इज़हार-ए-हाल का भी ज़रीया नहीं रहा
दिल इतना जल गया है कि आँखों में नम नहीं
मुस्कुराए वो हाल-ए-दिल सुन कर
और गोया जवाब था ही नहीं
अपनी सारी काविशों को राएगाँ मैं ने किया
मेरे अंदर जो न था उस को बयाँ मैं ने किया
अच्छी-ख़ासी दोस्ती थी यार हम दोनों के बीच
एक दिन फिर उस ने इज़हार-ए-मोहब्बत कर दिया
क्या बला थी अदा-ए-पुर्सिश-ए-यार
मुझ से इज़हार-ए-मुद्दआ न हुआ
मैं ने पूछा था कि इज़हार नहीं हो सकता
दिल पुकारा कि ख़बर-दार नहीं हो सकता
हाए इज़हार कर के पछताए
उस को इक दोस्त की ज़रूरत थी
सीने से दिल निकाल के हाथों पे रख दिया
मैं ने तो बस कहा था कि धड़कन का शोर है
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टैग : वैलेंटाइन डे
शाइ'री को मिरा इज़हार समझता है मगर
पर्दा-ए-शे'र उठाना भी नहीं चाहता है
क्यूँ न 'तनवीर' फिर इज़हार की जुरअत कीजे
ख़ामुशी भी तो यहाँ बाइस-ए-रुस्वाई है
पुर्सिश-ए-हाल भी इतनी कि मैं कुछ कह न सकूँ
इस तकल्लुफ़ से करम हो तो सितम होता है