तनवीर सामानी
ग़ज़ल 7
अशआर 6
क्यूँ न 'तनवीर' फिर इज़हार की जुरअत कीजे
ख़ामुशी भी तो यहाँ बाइस-ए-रुस्वाई है
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अपने काँधे पे लिए फिरती है एहसास का बोझ
ज़िंदगी क्या किसी मक़्तल की तमन्नाई है
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फ़र्ज़ी क़िस्सों झूटी बातों से अक्सर
सच्चाई के क़द को नापा करता हूँ
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अपनी सूरत भी कब अपनी लगती है
आईनों में ख़ुद को देखा करता हूँ
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