कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
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क़ुर्बतें लाख ख़ूब-सूरत हों
दूरियों में भी दिलकशी है अभी
थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते
कुछ और थक गया हूँ आराम करते करते
शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है
सोचता रोज़ हूँ मैं घर से नहीं निकलूँगा
एक ही शहर में रहना है मगर मिलना नहीं
देखते हैं ये अज़िय्यत भी गवारा कर के
घर में ख़ुद को क़ैद तो मैं ने आज किया है
तब भी तन्हा था जब महफ़िल महफ़िल था मैं
ये जो मिलाते फिरते हो तुम हर किसी से हाथ
ऐसा न हो कि धोना पड़े ज़िंदगी से हाथ
कुछ रोज़ नसीर आओ चलो घर में रहा जाए
लोगों को ये शिकवा है कि घर पर नहीं मिलता
मैं वो महरूम-ए-इनायत हूँ कि जिस ने तुझ से
मिलना चाहा तो बिछड़ने की वबा फूट पड़ी
अब तो मुश्किल है किसी और का होना मिरे दोस्त
तू मुझे ऐसे हुआ जैसे क्रोना मिरे दोस्त
दिल तो पहले ही जुदा थे यहाँ बस्ती वालो
क्या क़यामत है कि अब हाथ मिलाने से गए
टेंशन से मरेगा न क्रोने से मरेगा
इक शख़्स तिरे पास न होने से मरेगा
हाल पूछा न करे हाथ मिलाया न करे
मैं इसी धूप में ख़ुश हूँ कोई साया न करे
भूक से या वबा से मरना है
फ़ैसला आदमी को करना है
अफ़्सोस ये वबा के दिनों की मोहब्बतें
इक दूसरे से हाथ मिलाने से भी गए
घूम-फिर कर न क़त्ल-ए-आम करे
जो जहाँ है वहीं क़याम करे
घर रहिए कि बाहर है इक रक़्स बलाओं का
इस मौसम-ए-वहशत में नादान निकलते हैं
मुमकिन है यही दिल के मिलाने का सबब हो
ये रुत जो हमें हाथ मिलाने नहीं देती
बाज़ार हैं ख़ामोश तो गलियों पे है सकता
अब शहर में तन्हाई का डर बोल रहा है
इन दूरियों ने और बढ़ा दी हैं क़ुर्बतें
सब फ़ासले वबा की तवालत से मिट गए
ऐसी तरक़्क़ी पर तो रोना बनता है
जिस में दहशत-गर्द क्रोना बनता है
शहर गुम-सुम रास्ते सुनसान घर ख़ामोश हैं
क्या बला उतरी है क्यूँ दीवार-ओ-दर ख़ामोश हैं
आप ही आप दिए बुझते चले जाते हैं
और आसेब दिखाई भी नहीं देता है
मौत आ जाए वबा में ये अलग बात मगर
हम तिरे हिज्र में नाग़ा तो नहीं कर सकते
मुझे ये सारे मसीहा अज़ीज़ हैं लेकिन
ये कह रहे हैं कि मैं तुम से फ़ासला रक्खूँ
जहाँ जो था वहीं रहना था उस को
मगर ये लोग हिजरत कर रहे हैं
अपनी मजबूरी को हम दीवार-ओ-दर कहने लगे
क़ैद का सामाँ किया और उस को घर कहने लगे
जान है तो जहान है दिल है तो आरज़ू भी है
इशक़ भी हो रहेगा फिर जान अभी बचाइए
कैसा चमन कि हम से असीरों को मनअ' है
चाक-ए-क़फ़स से बाग़ की दीवार देखना
अकेला हो रह-ए-दुनिया में गिर चाहे बहुत जीना
हुई है फ़ैज़-ए-तन्हाई से उम्र-ए-ख़िज़्र तूलानी
हर एक जिस्म में मौजूद हश्त-पा की तरह
वबा का ख़ौफ़ है ख़ुद भी किसी वबा की तरह
इक बला कूकती है गलियों में
सब सिमट कर घरों में बैठ रहें
शहर-ए-जाँ में वबाओं का इक दौर था
मैं अदा-ए-तनफ़्फ़ुस में कमज़ोर था