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शायरी के अनुवाद1
ज़फ़र इक़बाल
ग़ज़ल 137
अशआर 161
थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते
कुछ और थक गया हूँ आराम करते करते
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झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'
आदमी को साहब-ए-किरदार होना चाहिए
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यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला
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ख़ामुशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए
ये तमाशा अब सर-ए-बाज़ार होना चाहिए
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हास्य शायरी 4
शायरी के अनुवाद 1
पुस्तकें 29
चित्र शायरी 33
बस एक बार किसी ने गले लगाया था फिर उस के बा'द न मैं था न मेरा साया था गली में लोग भी थे मेरे उस के दुश्मन लोग वो सब पे हँसता हुआ मेरे दिल में आया था उस एक दश्त में सौ शहर हो गए आबाद जहाँ किसी ने कभी कारवाँ लुटाया था वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले कि जिन से मैं ने ख़ुद अपना सुराग़ पाया था मिरे वजूद से गुलज़ार हो के निकली है वो आग जिस ने तिरा पैरहन जलाया था मुझी को ताना-ए-ग़ारत-गरी न दे प्यारे ये नक़्श मैं ने तिरे हाथ से मिटाया था उसी ने रूप बदल कर जगा दिया आख़िर जो ज़हर मुझ पे कभी नींद बन के छाया था 'ज़फ़र' की ख़ाक में है किस की हसरत-ए-तामीर ख़याल-ओ-ख़्वाब में किस ने ये घर बनाया था