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रज़ी अख़्तर शौक़

1933 - 1999 | कराची, पाकिस्तान

रज़ी अख़्तर शौक़

ग़ज़ल 40

अशआर 6

आप ही आप दिए बुझते चले जाते हैं

और आसेब दिखाई भी नहीं देता है

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मुझ को पाना है तो फिर मुझ में उतर कर देखो

यूँ किनारे से समुंदर नहीं देखा जाता

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हम रूह-ए-सफ़र हैं हमें नामों से पहचान

कल और किसी नाम से जाएँगे हम लोग

दो बादल आपस में मिले थे फिर ऐसी बरसात हुई

जिस्म ने जिस्म से सरगोशी की रूह की रूह से बात हुई

हम इतने परेशाँ थे कि हाल-ए-दिल-ए-सोज़ाँ

उन को भी सुनाया कि जो ग़म-ख़्वार नहीं थे

पुस्तकें 4

 

चित्र शायरी 1

 

वीडियो 6

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शायर अपना कलाम पढ़ते हुए

रज़ी अख़्तर शौक़

रज़ी अख़्तर शौक़

रज़ी अख़्तर शौक़

वो शाख़-ए-गुल कि जो आवाज़-ए-अंदलीब भी थी

रज़ी अख़्तर शौक़

ख़ुश्बू हैं तो हर दौर को महकाएँगे हम लोग

रज़ी अख़्तर शौक़

दिन का मलाल शाम की वहशत कहाँ से लाएँ

रज़ी अख़्तर शौक़

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