नईम जर्रार अहमद
ग़ज़ल 20
नज़्म 12
अशआर 9
जितनी आँखें थीं सारी मेरी थीं
जितने मंज़र थे सब तुम्हारे थे
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ये जानता है पलट कर उसे नहीं आना
वो अपनी ज़ीस्त की खिंचती हुई कमान में है
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मैं ख़ुद को सामने तेरे बिठा कर
ख़ुद अपने से गिला करता रहा हूँ
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मान टूटे तो फिर नहीं जुड़ता
बद-गुमानी कभी न आ के गई
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