पान पर शेर
पान हिन्दुस्तानी तहज़ीब
का एक अहम हिस्सा है। हिन्दुस्तान के एक ब़ड़े हिस्से में पान खाना और खिलाना समाजी राब्ते और तअल्लुक़ात को बढ़ाने और मेहमान-नवाज़ी की रस्म को क़ायम रखने का अहम ज़रिया है। पान की लाली अगर महबूब के होंठों पर हो तो शायर इसे सौ तरह से देखता और बयान करता है। आप भी मुलाहिज़ फ़रमाइये पान शायरी का यह रंगः
लगावट की अदा से उन का कहना पान हाज़िर है
क़यामत है सितम है दिल फ़िदा है जान हाज़िर है
उठाया उस ने बीड़ा क़त्ल का कुछ दिल में ठाना है
चबाना पान का भी ख़ूँ बहाने का बहाना है
जब हम-कलाम हम से होता है पान खा कर
किस रंग से करे है बातें चबा चबा कर
गिलौरी रक़ीबों ने भेजी है साहब
किसी और को भी खिला लीजिएगा
होंठों में दाब कर जो गिलौरी दी यार ने
क्या दाँत पीसे ग़ैरों ने क्या क्या चबाए होंठ
सुना के कोई कहानी हमें सुलाती थी
दुआओं जैसी बड़े पान-दान की ख़ुशबू
बालों में बल है आँख में सुर्मा है मुँह में पान
घर से निकल के पाँव निकाले निकल चले
बहुत से ख़ून-ख़राबे मचेंगे ख़ाना-ख़राब
यही है रंग अगर तेरे पान खाने का
काजल मेहंदी पान मिसी और कंघी चोटी में हर आन
क्या क्या रंग बनावेगी और क्या क्या नक़्शे ढालेगी
पान के ठेले होटल लोगों का जमघट
अपने तन्हा होने का एहसास भी क्या
था बहुत उन को गिलौरी का उठाना मुश्किल
दस्त-ए-नाज़ुक से दिया पान बड़ी मुश्किल से
कब पान रक़ीबों को इनायत नहीं होते
किस रोज़ मिरे क़त्ल का बीड़ा नहीं उठता
पान खा कर जो उगाल आप ने थूका साहब
जौहरी महव हुए लाल-ए-यमन याद आया
तुम्हारे लब की सुर्ख़ी लअ'ल की मानिंद असली है
अगर तुम पान ऐ प्यारे न खाओगे तो क्या होगा
पान बन बन के मिरी जान कहाँ जाते हैं
ये मिरे क़त्ल के सामान कहाँ जाते हैं
मिरे क़त्ल पर तुम ने बीड़ा उठाया
मिरे हाथ का पान खाया तो होता
जभी तू पान खा कर मुस्कुराया
तभी दिल खिल गया गुल की कली का
हम न उठते हैं न वो देते हैं
हाथ में पान है क्या मुश्किल है
आए भी तो खाए न गिलौरी न मला इत्र
रोकी मिरी दावत मुझे मेहमाँ से गिला है
ख़ून-ए-उश्शाक़ है मआनी में
शौक़ से पान खाइए साहब
सदा पान खा खा के निकले है बाहर
ज़माने में ख़ूँ-ख़्वार पैदा हुआ है
हाथ में ले कर गिलौरी मुझ को दिखला कर कहा
मुँह तो बनवाए कोई इस पान खाने के लिए
गर मज़ा चाहो तो कतरो दिल सरौते से मिरा
तुम सुपारी की डली रखते हो नाहक़ पान में
आते हैं वो कहीं से तो ऐ 'मेहर' क़र्ज़ दाम
चिकनी डली इलाइची मँगा पान छालीया
ख़ून-ए-उश्शाक़ का उठा बीड़ा
बे-सबब कब वो पान खाता है
पान खाने की अदा ये है तो इक आलम को
ख़ूँ रुलाएगा मिरी जाँ दहन-ए-सुर्ख़ तिरा
क्या है मुझे देते हो गिलौरी
चूने में कहीं न संख्या हो