इल्तिजा पर शेर
उर्दू शायरी में इल्तिजा
(विनती) का अर्थ अपने महबूब से मिलने या उसकी झलक भर पा लेने की ख़्वाहिश से जुड़ा हुआ है । उर्दू शायरी का प्रेमी हर पल यही इल्तिजा / विनती करता हुआ नज़र आता है कि किसी तरह उसका महबूब उसके सामने आ जाए और उनका मिलन हो जाए । लेकिन प्रेमिका तो बुत-ए-काफ़िर (इंकार करने वाला बुत) है वो भला अपने प्रेमी कि फ़रियाद क्यों सुने । उर्दू शायरी का एक बड़ा हिस्सा प्रेमी के इसी इल्तिजा को नए नए अंदाज़ में पेश करता है ।
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
व्याख्या
इस शे’र का मिज़ाज ग़ज़ल के पारंपरिक स्वभाव के समान है। चूँकि फ़ैज़ ने प्रगतिशील विचारों के प्रतिनिधित्व में भी उर्दू छंदशास्त्र की परंपरा का पूरा ध्यान रखा इसलिए उनकी रचनाओं में प्रतीकात्मक स्तर पर प्रगतिवादी सोच दिखाई देती है इसलिए उनकी शे’री दुनिया में और भी संभावनाएं मौजूद हैं। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण ये मशहूर शे’र है। बाद-ए-नौ-बहार के मायने नई बहार की हवा है। पहले इस शे’र की व्याख्या प्रगतिशील विचार को ध्यान मे रखते हुए करते हैं। फ़ैज़ की शिकायत ये रही है कि क्रांति होने के बावजूद शोषण की चक्की में पिसने वालों की क़िस्मत नहीं बदलती। इस शे’र में अगर बाद-ए-नौबहार को क्रांति का प्रतीक मान लिया जाये तो शे’र का अर्थ ये बनता है कि गुलशन (देश, समय आदि) का कारोबार तब तक नहीं चल सकता जब तक कि क्रांति अपने सही मायने में नहीं आती। इसीलिए वो क्रांति या परिवर्तन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जब तुम प्रगट हो जाओगे तब फूलों में नई बहार की हवा ताज़गी लाएगी। और इस तरह से चमन का कारोबार चलेगा। दूसरे शब्दों में वो अपने महबूब से कहते हैं कि तुम अब आ भी जाओ ताकि गुलों में नई बहार की हवा रंग भरे और चमन खिल उठे।
शफ़क़ सुपुरी
इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक
इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे
कहीं वो आ के मिटा दें न इंतिज़ार का लुत्फ़
कहीं क़ुबूल न हो जाए इल्तिजा मेरी
अब तो मिल जाओ हमें तुम कि तुम्हारी ख़ातिर
इतनी दूर आ गए दुनिया से किनारा करते
आओ मिल जाओ कि ये वक़्त न पाओगे कभी
मैं भी हम-राह ज़माने के बदल जाऊँगा
मानी हैं मैं ने सैकड़ों बातें तमाम उम्र
आज आप एक बात मिरी मान जाइए
न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
मुझे तो होश दे इतना रहूँ मैं तुझ पे दीवाना
सितम ही करना जफ़ा ही करना निगाह-ए-उल्फ़त कभी न करना
तुम्हें क़सम है हमारे सर की हमारे हक़ में कमी न करना
बहुत दूर तो कुछ नहीं घर मिरा
चले आओ इक दिन टहलते हुए
क़ुबूल इस बारगह में इल्तिजा कोई नहीं होती
इलाही या मुझी को इल्तिजा करना नहीं आता
इश्क़ में शिकवा कुफ़्र है और हर इल्तिजा हराम
तोड़ दे कासा-ए-मुराद इश्क़ गदागरी नहीं
इश्क़ को नग़्मा-ए-उम्मीद सुना दे आ कर
दिल की सोई हुई क़िस्मत को जगा दे आ कर
अब तो आ जाओ रस्म-ए-दुनिया की
मैं ने दीवार भी गिरा दी है