शकील जमाली
ग़ज़ल 30
नज़्म 1
अशआर 23
अभी रौशन हुआ जाता है रस्ता
वो देखो एक औरत आ रही है
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झूट में शक की कम गुंजाइश हो सकती है
सच को जब चाहो झुठलाया जा सकता है
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मैं ने हाथों से बुझाई है दहकती हुई आग
अपने बच्चे के खिलौने को बचाने के लिए
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शदीद गर्मी में कैसे निकले वो फूल-चेहरा
सो अपने रस्ते में धूप दीवार हो रही है
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