अब्बास ताबिश के शेर
ये मोहब्बत की कहानी नहीं मरती लेकिन
लोग किरदार निभाते हुए मर जाते हैं
एक मुद्दत से मिरी माँ नहीं सोई 'ताबिश'
मैं ने इक बार कहा था मुझे डर लगता है
जिस से पूछें तिरे बारे में यही कहता है
ख़ूबसूरत है वफ़ादार नहीं हो सकता
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मुद्दत के बाद ख़्वाब में आया था मेरा बाप
और उस ने मुझ से इतना कहा ख़ुश रहा करो
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टैग : पिता
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हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हंस
जो तअल्लुक़ को निभाते हुए मर जाते हैं
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हिज्र को हौसला और वस्ल को फ़ुर्सत दरकार
इक मोहब्बत के लिए एक जवानी कम है
मसरूफ़ हैं कुछ इतने कि हम कार-ए-मोहब्बत
आग़ाज़ तो कर लेते हैं जारी नहीं रखते
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अगर यूँही मुझे रक्खा गया अकेले में
बरामद और कोई इस मकान से होगा
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चाँद-चेहरे मुझे अच्छे तो बहुत लगते हैं
इश्क़ मैं उस से करूँगा जिसे उर्दू आए
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टैग : उर्दू
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मेरे सीने से ज़रा कान लगा कर देखो
साँस चलती है कि ज़ंजीर-ज़नी होती है
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टैग : कर्बला
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झोंके के साथ छत गई दस्तक के साथ दर गया
ताज़ा हवा के शौक़ में मेरा तो सारा घर गया
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तुम माँग रहे हो मिरे दिल से मिरी ख़्वाहिश
बच्चा तो कभी अपने खिलौने नहीं देता
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एक मोहब्बत और वो भी नाकाम मोहब्बत
लेकिन इस से काम चलाया जा सकता है
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मोहब्बत एक दम दुख का मुदावा कर नहीं देती
ये तितली बैठती है ज़ख़्म पर आहिस्ता आहिस्ता
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तेरी रूह में सन्नाटा है और मिरी आवाज़ में चुप
तू अपने अंदाज़ में चुप है मैं अपने अंदाज़ में चुप
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मैं उसे देख के लौटा हूँ तो क्या देखता हूँ
शहर का शहर मुझे देखने आया हुआ है
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मैं जिस सुकून से बैठा हूँ इस किनारे पर
सुकूँ से लगता है मेरा क़याम आख़िरी है
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फ़क़त माल-ओ-ज़र-ए-दीवार-ओ-दर अच्छा नहीं लगता
जहाँ बच्चे नहीं होते वो घर अच्छा नहीं लगता
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टैग : बचपन
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घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा
हम तिरे शहर से जाते हुए मर जाते हैं
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बोलता हूँ तो मिरे होंट झुलस जाते हैं
उस को ये बात बताने में बड़ी देर लगी
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शब की शब कोई न शर्मिंदा-ए-रुख़स्त ठहरे
जाने वालों के लिए शमएँ बुझा दी जाएँ
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बस एक मोड़ मिरी ज़िंदगी में आया था
फिर इस के बाद उलझती गई कहानी मेरी
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ये ज़िंदगी कुछ भी हो मगर अपने लिए तो
कुछ भी नहीं बच्चों की शरारत के अलावा
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टैग : बचपन
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न ख़्वाब ही से जगाया न इंतिज़ार किया
हम इस दफ़अ भी चले आए चूम कर उस को
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मैं अपने आप में गहरा उतर गया शायद
मिरे सफ़र से अलग हो गई रवानी मिरी
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टैग : सफ़र
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मुझ से तो दिल भी मोहब्बत में नहीं ख़र्च हुआ
तुम तो कहते थे कि इस काम में घर लगता है
इश्क़ कर के भी खुल नहीं पाया
तेरा मेरा मुआमला क्या है
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उन आँखों में कूदने वालो तुम को इतना ध्यान रहे
वो झीलें पायाब हैं लेकिन उन की तह पथरीली है
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आँखों तक आ सकी न कभी आँसुओं की लहर
ये क़ाफ़िला भी नक़्ल-ए-मकानी में खो गया
वक़्त लफ़्ज़ों से बनाई हुई चादर जैसा
ओढ़ लेता हूँ तो सब ख़्वाब हुनर लगता है
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तू भी ऐ शख़्स कहाँ तक मुझे बर्दाश्त करे
बार बार एक ही चेहरा नहीं देखा जाता
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इक मोहब्बत ही पे मौक़ूफ़ नहीं है 'ताबिश'
कुछ बड़े फ़ैसले हो जाते हैं नादानी में
तिरी मोहब्बत में गुमरही का अजब नशा था
कि तुझ तक आते हुए ख़ुदा तक पहुँच गए हैं
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ये तो अब इश्क़ में जी लगने लगा है कुछ कुछ
इस तरफ़ पहले-पहल घेर के लाया गया मैं
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अभी तो घर में न बैठें कहो बुज़ुर्गों से
अभी तो शहर के बच्चे सलाम करते हैं
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पस-ए-ग़ुबार भी उड़ता ग़ुबार अपना था
तिरे बहाने हमें इंतिज़ार अपना था
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टैग : बहाना
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फिर इस के ब'अद ये बाज़ार-ए-दिल नहीं लगना
ख़रीद लीजिए साहिब ग़ुलाम आख़िरी है
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वर्ना कोई कब गालियाँ देता है किसी को
ये उस का करम है कि तुझे याद रहा मैं
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रात कमरे में न था मेरे अलावा कोई
मैं ने इस ख़ौफ़ से ख़ंजर न सिरहाने रक्खा
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मकीं जब नींद के साए में सुस्ताने लगें 'ताबिश'
सफ़र करते हैं बस्ती के मकाँ आहिस्ता आहिस्ता
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रात को जब याद आए तेरी ख़ुशबू-ए-क़बा
तेरे क़िस्से छेड़ते हैं रात की रानी से हम
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मैं ने पूछा था कि इज़हार नहीं हो सकता
दिल पुकारा कि ख़बर-दार नहीं हो सकता
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टैग : इज़हार
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बैठे रहने से तो लौ देते नहीं ये जिस्म ओ जाँ
जुगनुओं की चाल चलिए रौशनी बन जाइए
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हम जुड़े रहते थे आबाद मकानों की तरह
अब ये बातें हमें लगती हैं फ़सानों की तरह
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'ताबिश' जो गुज़रती ही नहीं शाम की हद से
सोचें तो वहीं रात सहर-ख़ेज़ बहुत है
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मिलती नहीं है नाव तो दरवेश की तरह
ख़ुद में उतर के पार उतर जाना चाहिए
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हमारे जैसे वहाँ किस शुमार में होंगे
कि जिस क़तार में मजनूँ का नाम आख़िरी है
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मैं हूँ इस शहर में ताख़ीर से आया हुआ शख़्स
मुझ को इक और ज़माने में बड़ी देर लगी
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मौसम तुम्हारे साथ का जाने किधर गया
तुम आए और बौर न आया दरख़्त पर
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टैग : आम
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क्यूँ न ऐ शख़्स तुझे हाथ लगा कर देखूँ
तू मिरे वहम से बढ़ कर भी तो हो सकता है
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