सलाम उन पे तह-ए-तेग़ भी जिन्हों ने कहा
जो तेरा हुक्म जो तेरी रज़ा जो तू चाहे
इशरत-ए-क़त्ल-गह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उर्यां होना
साँस लेता हूँ तो रोता है कोई सीने में
दिल धड़कता है तो मातम की सदा आती है
तन्हा तिरे मातम में नहीं शाम-ए-सियह-पोश
रहता है सदा चाक गरेबान-ए-सहर भी
क़त्ल-ए-हुसैन अस्ल में मर्ग-ए-यज़ीद है
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद
मेरे सीने से ज़रा कान लगा कर देखो
साँस चलती है कि ज़ंजीर-ज़नी होती है
हुसैन-इब्न-ए-अली कर्बला को जाते हैं
मगर ये लोग अभी तक घरों के अंदर हैं
जब भी ज़मीर-ओ-ज़र्फ़ का सौदा हो दोस्तो
क़ाएम रहो हुसैन के इंकार की तरह
शु’ऊर-ए-तिश्नगी इक रोज़ में पुख़्ता नहीं होता
मिरे होंटों ने सदियों कर्बला की ख़ाक चूमी है
बुलंद हाथों में ज़ंजीर डाल देते हैं
अजीब रस्म चली है दुआ न माँगे कोई
पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्ता शहर में खोले मिरी ज़ंजीर कौन
'मुसहफ़ी' कर्ब-ओ-बला का सफ़र आसान नहीं
सैंकड़ों बसरा-ओ-बग़दाद में मर जाते हैं
साहिल तमाम अश्क-ए-नदामत से अट गया
दरिया से कोई शख़्स तो प्यासा पलट गया
ता-क़यामत ज़िक्र से रौशन रहेगी ये ज़मीं
ज़ुल्मतों की शाम में इक रौशनी है कर्बला
कल जहाँ ज़ुल्म ने काटी थीं सरों की फ़सलें
नम हुई है तो उसी ख़ाक से लश्कर निकला
तुम जो कुछ चाहो वो तारीख़ में तहरीर करो
ये तो नेज़ा ही समझता है कि सर में क्या था
हवा-ए-ज़ुल्म सोचती है किस भँवर में आ गई
वो इक दिया बुझा तो सैंकड़ों दिए जला गया
फिर कर्बला के ब'अद दिखाई नहीं दिया
ऐसा कोई भी शख़्स कि प्यासा कहें जिसे
सीना-कूबी से ज़मीं सारी हिला के उट्ठे
क्या अलम धूम से तेरे शोहदा के उट्ठे
दिल है प्यासा हुसैन के मानिंद
ये बदन कर्बला का मैदाँ है
ज़वाल-ए-अस्र है कूफ़े में और गदागर हैं
खुला नहीं कोई दर बाब-ए-इल्तिजा के सिवा
तन्हा खड़ा हूँ मैं भी सर-ए-कर्बला-ए-अस्र
और सोचता हूँ मेरे तरफ़-दार क्या हुए
हवा-ए-कूफ़ा-ए-ना-मेहरबाँ को हैरत है
कि लोग ख़ेमा-ए-सब्र-ओ-रज़ा में ज़िंदा हैं