अब्र अहसनी गनौरी
ग़ज़ल 17
नज़्म 2
अशआर 7
इश्क़ में और भी दीवाना बना देती है
मेरी आवाज़ में मिल कर तिरी आवाज़ मुझे
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तुम क्यों उदास हो गए मैदान-ए-हश्र में
कह दो तो दिल की दिल में मिरी दास्ताँ रहे
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वहशियों को ये सबक़ देती हुई आई बहार
तार बाक़ी न रहे कोई गरेबानों में
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शायद इस बात पे लब मेरे सिए जाते हैं
आह के साथ निकल जाए न अरमाँ कोई
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पलट आता हूँ मैं मायूस हो कर उन मक़ामों से
जहाँ से सिलसिला नज़दीक-तर होता है मंज़िल का
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