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नज़ीर अकबराबादी के शेर
जुदा किसी से किसी का ग़रज़ हबीब न हो
ये दाग़ वो है कि दुश्मन को भी नसीब न हो
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टैग : जुदाई
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था इरादा तिरी फ़रियाद करें हाकिम से
वो भी एे शोख़ तिरा चाहने वाला निकला
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मय पी के जो गिरता है तो लेते हैं उसे थाम
नज़रों से गिरा जो उसे फिर किस ने सँभाला
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थे हम तो ख़ुद-पसंद बहुत लेकिन इश्क़ में
अब है वही पसंद जो हो यार को पसंद
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दिल की बेताबी नहीं ठहरने देती है मुझे
दिन कहीं रात कहीं सुब्ह कहीं शाम कहीं
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क्यूँ नहीं लेता हमारी तू ख़बर ऐ बे-ख़बर
क्या तिरे आशिक़ हुए थे दर्द-ओ-ग़म खाने को हम
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टैग : हज़ार दास्तान-ए-इश्क़
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दूर से आए थे साक़ी सुन के मय-ख़ाने को हम
बस तरसते ही चले अफ़्सोस पैमाने को हम
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टैग : मय-कदा
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जिस काम को जहाँ में तू आया था ऐ 'नज़ीर'
ख़ाना-ख़राब तुझ से वही काम रह गया
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ख़ुदा के वास्ते गुल को न मेरे हाथ से लो
मुझे बू आती है इस में किसी बदन की सी
भुला दीं हम ने किताबें कि उस परी-रू के
किताबी चेहरे के आगे किताब है क्या चीज़
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तू जो कल आने को कहता है 'नज़ीर'
तुझ को मालूम है कल क्या होगा
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तुम्हारे हिज्र में आँखें हमारी मुद्दत से
नहीं ये जानतीं दुनिया में ख़्वाब है क्या चीज़
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टैग : हिज्र
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बदन गुल चेहरा गुल रुख़्सार गुल लब गुल दहन है गुल
सरापा अब तो वो रश्क-ए-चमन है ढेर फूलों का
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किस को कहिए नेक और ठहराइए किस को बुरा
ग़ौर से देखा तो सब अपने ही भाई-बंद हैं
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कूचे में उस के बैठना हुस्न को उस के देखना
हम तो उसी को समझे हैं बाग़ भी और बहार भी
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सब किताबों के खुल गए मअ'नी
जब से देखी 'नज़ीर' दिल की किताब
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टैग : किताब
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ज़माने के हाथों से चारा नहीं है
ज़माना हमारा तुम्हारा नहीं है
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देखेंगे हम इक निगाह उस को
कुछ होश अगर बजा रहेगा
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जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
सच तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है
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मैं हूँ पतंग-ए-काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में
चाहा इधर घटा दिया चाहा उधर बढ़ा दिया
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अभी कहें तो किसी को न ए'तिबार आवे
कि हम को राह में इक आश्ना ने लूट लिया
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मय भी है मीना भी है साग़र भी है साक़ी नहीं
दिल में आता है लगा दें आग मय-ख़ाने को हम
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बाग़ में लगता नहीं सहरा से घबराता है दिल
अब कहाँ ले जा के बैठें ऐसे दीवाने को हम
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आते ही जो तुम मेरे गले लग गए वल्लाह
उस वक़्त तो इस गर्मी ने सब मात की गर्मी
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टैग : गर्मी
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शहर-ए-दिल आबाद था जब तक वो शहर-आरा रहा
जब वो शहर-आरा गया फिर शहर-ए-दिल में क्या रहा
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अब तो ज़रा सा गाँव भी बेटी न दे उसे
लगता था वर्ना चीन का दामाद आगरा
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टैग : आगरा
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मरता है जो महबूब की ठोकर पे 'नज़ीर' आह
फिर उस को कभी और कोई लत नहीं लगती
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न इतना ज़ुल्म कर ऐ चाँदनी बहर-ए-ख़ुदा छुप जा
तुझे देखे से याद आता है मुझ को माहताब अपना
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है दसहरे में भी यूँ गर फ़रहत-ओ-ज़ीनत 'नज़ीर'
पर दिवाली भी अजब पाकीज़ा-तर त्यौहार है
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अकेला उस को न छोड़ा जो घर से निकला वो
हर इक बहाने से मैं उस सनम के साथ रहा
हुस्न के नाज़ उठाने के सिवा
हम से और हुस्न-ए-अमल क्या होगा
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बंदे के क़लम हाथ में होता तो ग़ज़ब था
सद शुक्र कि है कातिब-ए-तक़दीर कोई और
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कल शब-ए-वस्ल में क्या जल्द बजी थीं घड़ियाँ
आज क्या मर गए घड़ियाल बजाने वाले
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हम हाल तो कह सकते हैं अपना प कहें क्या
जब वो इधर आते हैं तो तन्हा नहीं आते
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जो बात हिज्र की आती तो अपने दामन से
वो आँसू पोंछता जाता था और मैं रोता था
बे-ज़री फ़ाक़ा-कशी मुफ़्लिसी बे-सामानी
हम फ़क़ीरों के भी हाँ कुछ नहीं और सब कुछ है
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टैग : मुफ़्लिसी
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अश्कों के तसलसुल ने छुपाया तन-ए-उर्यां
ये आब-ए-रवाँ का है नया पैरहन अपना
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जिसे मोल लेना हो ले ले ख़ुशी से
मैं इस वक़्त दोनों जहाँ बेचता हूँ
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दिल की बे-ताबी ठहरने नहीं देती मुझ को
दिन कहीं रात कहीं सुब्ह कहीं शाम कहीं
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तूफ़ाँ उठा रहा है मिरे दिल में सैल-ए-अश्क
वो दिन ख़ुदा न लाए जो मैं आब-दीदा हूँ
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टैग : आब दीदा
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उस बेवफ़ा ने हम को अगर अपने इश्क़ में
रुस्वा किया ख़राब किया फिर किसी को क्या
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ख़फ़ा देखा है उस को ख़्वाब में दिल सख़्त मुज़्तर है
खिला दे देखिए क्या क्या गुल-ए-ताबीर-ए-ख़्वाब अपना
यार के आगे पढ़ा ये रेख़्ता जा कर 'नज़ीर'
सुन के बोला वाह-वाह अच्छा कहा अच्छा कहा
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टैग : रेख़्ता
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अबस मेहनत है कुछ हासिल नहीं पत्थर-तराशी से
यही मज़मून था फ़रहाद के तेशे की खट-खट का
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देख ले इस चमन-ए-दहर को दिल भर के 'नज़ीर'
फिर तिरा काहे को इस बाग़ में आना होगा
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जिस्म क्या रूह की है जौलाँ-गाह
रूह क्या इक सवार-ए-पा-ब-रकाब
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सर-चश्मा-ए-बक़ा से हरगिज़ न आब लाओ
हज़रत ख़िज़र कहीं से जा कर शराब लाओ
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टैग : शराब
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जा पड़े चुप हो के जब शहर-ए-ख़मोशाँ में 'नज़ीर'
ये ग़ज़ल ये रेख़्ता ये शेर-ख़्वानी फिर कहाँ
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टैग : रेख़्ता
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आँखों में मेरी सुब्ह-ए-क़यामत गई झमक
सीने से उस परी के जो पर्दा उलट गया
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ग़श खा के गिरा पहले ही शोले की झलक से
मूसा को भला कहिए तो क्या तूर की सूझी
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