मैं रोना चाहता हूँ ख़ूब रोना चाहता हूँ मैं
फिर उस के बाद गहरी नींद सोना चाहता हूँ मैं
ऐ दोस्त तुझ को रहम न आए तो क्या करूँ
दुश्मन भी मेरे हाल पे अब आब-दीदा है
वक़्त-ए-रुख़्सत आब-दीदा आप क्यूँ हैं
जिस्म से तो जाँ हमारी जा रही है
उदासी खींच लाई है यहाँ तक
मैं आँसू था समुंदर में पड़ा हूँ
तूफ़ाँ उठा रहा है मिरे दिल में सैल-ए-अश्क
वो दिन ख़ुदा न लाए जो मैं आब-दीदा हूँ
वहाँ अब ख़्वाब-गाहें बन गई हैं
उठे थे आब-दीदा हम जहाँ से
झिलमिलाते रहे वो ख़्वाब जो पूरे न हुए
दर्द बेदार टपकता रहा आँसू आँसू
क्यूँ खिलौने टूटने पर आब-दीदा हो गए
अब तुम्हें हम क्या बताएँ क्या परेशानी हुई
ऐसी क्या बीत गई मुझ पे कि जिस के बाइस
आब-दीदा हैं मिरे हँसने हँसाने वाले
हम तेरी तबीअत को 'ख़ुर्शीद' नहीं समझे
पत्थर नज़र आता था रोया तो बहुत रोया
उन की याद में बहते आँसू ख़ुश्क अगर हो जाएँगे
सात समुंदर अपनी ख़ाली आँखों में भर लाऊँगा
वाँ सज्दा-ए-नियाज़ की मिट्टी ख़राब है
जब तक कि आब-ए-दीदा से ताज़ा वज़ू न हो
आब-दीदा हूँ मैं ख़ुद ज़ख़्म-ए-जिगर से अपने
तेरी आँखों में छुपा दर्द कहाँ से देखूँ
कपड़े गले के मेरे न हों आब-दीदा क्यूँ
मानिंद-ए-अब्र दीदा-ए-तर अब तो छा गया
ये आब-दीदा ठहर जाए झील की सूरत
कि एक चाँद का टुकड़ा नहाना चाहता है
तूफ़ान-ए-जहल ने मिरा जौहर मिटा दिया
मैं इक किताब ख़ूब हूँ पर आब-दीदा हूँ
हम इश्क़ तेरे हाथ से क्या क्या न देखीं हालतें
देख आब-दीदा ख़ूँ न हो ख़ून-ए-जिगर पानी न कर
कौन उठ गया है पास से मेरे जो 'मुसहफ़ी'
रोता हूँ ज़ार ज़ार पड़ा आब-दीदा हूँ
सैलाब-ए-चश्म-ए-तर से ज़माना ख़राब है
शिकवे कहाँ कहाँ हैं मिरे आब-दीदा के
रोना है अगर यही तो 'क़ाएम'
इक ख़ल्क़ को हम डुबा रहे हैं
ऐ सकिनान-ए-चर्ख़-ए-मुअल्ला बचो बचो
तूफ़ाँ हुआ बुलंद मिरे आब-दीदा का
रोने तलक तो किस को है फ़ुर्सत यहाँ सहाब
तूफ़ाँ हुआ भी जो टुक इक आब-दीदा हूँ