ग़ुलाम मुर्तज़ा राही के शेर
अब और देर न कर हश्र बरपा करने में
मिरी नज़र तिरे दीदार को तरसती है
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चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ
सफ़र अधूरा रहा आसमान ख़त्म हुआ
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टैग : सफ़र
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कैसा इंसाँ तरस रहा है जीने को
कैसे साहिल पर इक मछली ज़िंदा है
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हर एक साँस मुझे खींचती है उस की तरफ़
ये कौन मेरे लिए बे-क़रार रहता है
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टैग : बेक़रारी
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आता था जिस को देख के तस्वीर का ख़याल
अब तो वो कील भी मिरी दीवार में नहीं
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टैग : तस्वीर
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कोई इक ज़ाइक़ा नहीं मिलता
ग़म में शामिल ख़ुशी सी रहती है
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रख दिया वक़्त ने आईना बना कर मुझ को
रू-ब-रू होते हुए भी मैं फ़रामोश रहा
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टैग : वक़्त
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अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है
ये चराग़ अपना धुआँ जाने कहाँ रखता है
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टैग : चराग़
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किसी ने भेज कर काग़ज़ की कश्ती
बुलाया है समुंदर पार मुझ को
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दिल ने तमन्ना की थी जिस की बरसों तक
ऐसे ज़ख़्म को अच्छा कर के बैठ गए
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मैं तिरे वास्ते आईना था
अपनी सूरत को तरस अब क्या है
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टैग : आईना
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यारों ने मेरी राह में दीवार खींच कर
मशहूर कर दिया कि मुझे साया चाहिए
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टैग : साया
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मेरी पहचान बताने का सवाल आया जब
आइनों ने भी हक़ीक़त से मुकरना चाहा
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पहले उस ने मुझे चुनवा दिया दीवार के साथ
फिर इमारत को मिरे नाम से मौसूम किया
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न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की
खिंची है हर तरफ़ इक चार दीवारी सी कोई
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ये दौर है जो तुम्हारा रहेगा ये भी नहीं
कोई ज़माना था मेरा गुज़र गया वो भी
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ज़बान अपनी बदलने पे कोई राज़ी नहीं
वही जवाब है उस का वही सवाल मिरा
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दूसरा कोई तमाशा न था ज़ालिम के पास
वही तलवार थी उस की वही सर था मेरा
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गर्मियों भर मिरे कमरे में पड़ा रहता है
देख कर रुख़ मुझे सूरज का ये घर लेना था
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टैग : गर्मी
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जो उस तरफ़ से इशारा कभी किया उस ने
मैं डूब जाऊँगा दरिया को पार करते हुए
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हुस्न-ए-अमल में बरकतें होती हैं बे-शुमार
पत्थर भी तोड़िए तो सलीक़े से तोड़िए
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कितना भी रंग-ओ-नस्ल में रखते हों इख़्तिलाफ़
फिर भी खड़े हुए हैं शजर इक क़तार में
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उस ने जब दरवाज़ा मुझ पर बंद किया
मुझ पर उस की महफ़िल के आदाब खुले
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एक हस्ती मिरी अनासिर चार
हर तरफ़ से घिरी सी रहती है
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टैग : अनासिर
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साँसों के आने जाने से लगता है
इक पल जीता हूँ तो इक पल मरता हूँ
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ये लोग किस की तरफ़ देखते हैं हसरत से
वो कौन है जो समुंदर के पार रहता है
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चाहता है वो कि दरिया सूख जाए
रेत का व्यापार करना चाहता है
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देखने सुनने का मज़ा जब है
कुछ हक़ीक़त हो कुछ फ़साना हो
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पहले चिंगारी उड़ा लाई हवा
ले के अब राख उड़ी जाती है
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रखता नहीं है दश्त सरोकार आब से
बहलाए जाते हैं यहाँ प्यासे सराब से
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अपनी क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा देखूँ
ज़ुल्मत-ए-शब में यही एक नज़ारा देखूँ
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अब जो आज़ाद हुए हैं तो ख़याल आया है
कि हमें क़ैद भली थी तो सज़ा कैसी थी
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जैसे कोई काट रहा है जाल मिरा
जैसे उड़ने वाला कोई परिंदा है
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बात बढ़ती गई आगे मिरी नादानी से
कितना अर्ज़ां हुआ मैं अपनी फ़रावानी से
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झाँकता भी नहीं सूरज मिरे घर के अंदर
बंद भी कोई दरीचा नहीं रहने देता
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मेरी कश्ती को डुबो कर चैन से बैठे न तू
ऐ मिरे दरिया! हमेशा तुझ में तुग़्यानी रहे
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किसी की राह में आने की ये भी सूरत है
कि साया के लिए दीवार हो लिया जाए
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टैग : साया
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यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को
खड़ी की जाएगी मुझ पर अभी दीवार कोई
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एक दिन दरिया मकानों में घुसा
और दीवारें उठा कर ले गया
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कुछ ऐसे देखता है वो मुझे कि लगता है
दिखा रहा है मुझे मेरा आइना कुछ और
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रहेगा आईने की तरह आब पर क़ाएम
नदी में डूबने वाला नहीं किनारा मिरा
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पुरखों से चली आती है ये नक़्ल-ए-मकानी
अब मुझ से भी ख़ाली मिरा घर होने लगा है
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एक इक लफ़्ज़ से मअनी की किरन फूटती है
रौशनी में पढ़ा जाता है सहीफ़ा मेरा
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कहाँ तक उस की मसीहाई का शुमार करूँ
जहाँ है ज़ख़्म वहीं इंदिमाल है उस का
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हम-सरी उन की जो करना चाहे
उस को सूली पर चढ़ा देते हैं
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सहरा जंगल सागर पर्बत
इन से ही रस्ता मिलता है
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ऐ मिरे पायाब दरिया तुझ को ले कर क्या करूँ
नाख़ुदा पतवार कश्ती बादबाँ रखते हुए
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अब मिरे गिर्द ठहरती नहीं दीवार कोई
बंदिशें हार गईं बे-सर-ओ-सामानी से
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हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
ज़रूर कोई मुझे क़ैद से छुड़ा लेगा
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