श्रद्धांजलि पर शेर
अच्छे लोग कभी नहीं मरते
वो अपनी माद्दी जिस्मानी सूरत से तो आज़ाद हो जाते हैं लेकिन उनकी यादें दिलों में हमेशा घर किए रहती हैं और हम उन्हें वक़्तन फ़वक़्तन याद करते रहते हैं। यहाँ हम कुछ ऐसे ही शेर पेश कर रहे हैं जो गुज़रे हुओं को याद करने और उन्हें ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश करने की मुख़्तलिफ़ सूरतों, जज़्बों और एहसासात की तर्जुमानी करते हैं।
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा
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बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई
इक शख़्स सारे शहर को वीरान कर गया
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कहानी ख़त्म हुई और ऐसी ख़त्म हुई
कि लोग रोने लगे तालियाँ बजाते हुए
मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं
व्याख्या
ये मीर तक़ी मीर के मशहूर अशआर में से एक है। इस शे’र की बुनियाद ''मत सहल हमें जानो” पर है। सहल का मतलब आसान है और कम से कम भी। मगर इस शे’र में यह लफ़्ज़ कम से कम के मानी में इस्तेमाल हुआ है। फ़लक का मतलब आस्मान है और फ़लक के फिरने से तात्पर्य चक्कर काटने और मारा मारा फिरने के भी हैं। इस शे’र में फ़लक के फिरने से तात्पर्य मारा मारा फिरने के ही हैं। ख़ाक का मतलब ज़मीन, मिट्टी है और ख़ाक शब्द मीर ने इस लिए इस्तेमाल किया है कि इंसान ख़ाक (मिट्टी) से बना हुआ है यानी ख़ाकी कहा जाता है।
शे’र में ख़ास बात ये है कि शायर ने “फ़लक”, “ख़ाक” और “इंसान” जैसे शब्दों से बहुत कमाल का ख़्याल पेश किया है। शे’र के नज़दीक के मानी तो ये हुए कि ऐ इंसान हम जैसे लोगों को आसान मत समझो, हम जैसे लोग तब मिट्टी से पैदा होते हैं जब आस्मान बरसों तक भटकता है। लेकिन शायर अस्ल में ये कहना चाहता है कि हम जैसे कमाल के लोग रोज़ रोज़ पैदा नहीं होते बल्कि जब आस्मान बरसों मारा मारा फिरता है तब हम जैसे लोग पैदा होते हैं। इसलिए हमें कम या बहुत छोटा मत जानो। यानी जब आस्मान बरसों तक हम जैसे कमाल के लोगों को पैदा करने के लिए मारा मारा फिरता है तब कहीं जाकर हम मिट्टी के पर्दे से पैदा होते हैं।
इस शे’र में शब्द इंसान से दो मानी निकलते हैं, एक कमाल का, हुनरमंद और योग्य आदमी। दूसरा इंसानियत से भरपूर आदमी।
शफ़क़ सुपुरी
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तेरी महफ़िल से जो निकला तो ये मंज़र देखा
मुझे लोगों ने बुलाया मुझे छू कर देखा
लोग अच्छे हैं बहुत दिल में उतर जाते हैं
इक बुराई है तो बस ये है कि मर जाते हैं
एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा
आँख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा
जिन से मिल कर ज़िंदगी से इश्क़ हो जाए वो लोग
आप ने शायद न देखे हों मगर ऐसे भी हैं
जाने वाले कभी नहीं आते
जाने वालों की याद आती है
मौत उस की है करे जिस का ज़माना अफ़्सोस
यूँ तो दुनिया में सभी आए हैं मरने के लिए
उठ गई हैं सामने से कैसी कैसी सूरतें
रोइए किस के लिए किस किस का मातम कीजिए
अब नहीं लौट के आने वाला
घर खुला छोड़ के जाने वाला
एक रौशन दिमाग़ था न रहा
शहर में इक चराग़ था न रहा
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कल उस की आँख ने क्या ज़िंदा गुफ़्तुगू की थी
गुमान तक न हुआ वो बिछड़ने वाला है
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं
व्याख्या
ग़ालिब का यह मशहूर शे’र अर्थगत और कलात्मक दोनों स्तरों पर कमाल का दर्जा रखता है। शे’र के संदर्भ बड़े दिलचस्प हैं। लाला-ओ-गुल के संदर्भ से सूरतें और इन दोनों की रियायत से ख़ाक(मिट्टी), नुमायां के संदर्भ से पिनहाँ (गोपनीय) और इन दोनों की रियायत से “ख़ाक” हर पहलू से विचारणीय है। मानव रूपों को लाला-ओ-गुल से तुलना करना और फिर उनके आविर्भाव के लिए ख़ाक(मिट्टी) को माध्यम बनाना ग़ालिब का ही कमाल है। और इससे बढ़कर कमाल ये है कि लाला-ओ-गुल को मानव रूपों के अधीन बताया है और वो भी तब जब वो ख़ाक में मिल जाती हैं।
“सब कहाँ कुछ” कह कर जैसे यह बताया गया है कि ये जो लाला-ओ-गुल हैं ये उन मानव रूपों में से कुछ ही में प्रकट हुए हैं जो मरने के बाद क़ब्र में समाती हैं। “ख़ाक में क्या सूरतें होंगी” अर्थात कैसे कैसे हसीन व रूपवान लोग मिट्टी में मिल गए। शे’र का भावार्थ ये है कि मरने के बाद बड़े ख़ूबसूरत लोग भी मिट्टी में मिल जाते हैं। उनमें से कुछ ही लाला-ओ-गुल के रूप में प्रकट होते हैं। मानो लाला-ओ-गुल के रूप में वो परी जैसे सुंदर रूप वाले लोग दूसरा जन्म लेते हैं या अगर उन ख़ूबसूरत लोगों में से सब के सब लाला-ओ-गुल के रूप में प्रकट होंगें तो सारी धरती भर जाएगी।
शफ़क़ सुपुरी
जिन्हें अब गर्दिश-ए-अफ़्लाक पैदा कर नहीं सकती
कुछ ऐसी हस्तियाँ भी दफ़्न हैं गोर-ए-ग़रीबाँ में
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वे सूरतें इलाही किस मुल्क बस्तियाँ हैं
अब देखने को जिन के आँखें तरसतियाँ हैं
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टैग : याद-ए-रफ़्तगाँ
ये हिजरतें हैं ज़मीन ओ ज़माँ से आगे की
जो जा चुका है उसे लौट कर नहीं आना
झोंके नसीम-ए-ख़ुल्द के होने लगे निसार
जन्नत को इस गुलाब का था कब से इंतिज़ार