सुरूर बाराबंकवी
ग़ज़ल 20
नज़्म 3
अशआर 2
क़ितआ 1
चित्र शायरी 2
यही नहीं कि मिरा दिल ही मेरे बस में न था जो तू मिला तो में ख़ुद अपनी दस्तरस में न था ब-नाम-ए-अहद-ए-रिफ़ाक़त भी हम-क़दम न हुआ ये हौसला मिरे मासूम हम-नफ़स में न था अजीब सेहर का आलम था उस की क़ुर्बत में वो मेरे पास था और मेरी दस्तरस में न था न जाने क़ाफ़िला-ए-अहल-ए-दिल पे क्या गुज़री ये इज़्तिराब कभी नाला-ए-जरस में न था ख़बर तो होगी तुझे तेरे जाँ-निसारों में कोई तो था सर-ए-मक़्तल जो पेश-ओ-पस में न था 'सुरूर' अपने चमन की फ़ज़ा है क्या कहिए सुकूत का तो वो आलम है जो क़फ़स में न था
वीडियो 22
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