aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1930 - 1997 | ग्वालियर, भारत
वो ज़हर देता तो सब की निगह में आ जाता
सो ये किया कि मुझे वक़्त पे दवाएँ न दीं
अब नहीं लौट के आने वाला
घर खुला छोड़ के जाने वाला
मिरी तरफ़ से तो टूटा नहीं कोई रिश्ता
किसी ने तोड़ दिया ए'तिबार टूट गया
नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैं ने
अब समुंदर की ज़िम्मेदारी है
भारी बोझ पहाड़ सा कुछ हल्का हो जाए
जब मेरी चिंता बढ़े माँ सपने में आए
आदत से लाचार है आदत नई अजीब
जिस दिन खाया पेट भर सोया नहीं ग़रीब
छेड़-छाड़ करता रहा मुझ से बहुत नसीब
मैं जीता तरकीब से हारा वही ग़रीब
लौटा गेहूँ बेच कर अपने गाँव किसान
बिटिया गुड़िया सी लगी पत्नी लगी जवान
खोल दिए कुछ सोच कर सब पिंजरों के द्वार
अब कोई पंछी नहीं उड़ने को तय्यार
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