जावेद कमाल रामपुरी के शेर
फिर कई ज़ख़्म-ए-दिल महक उट्ठे
फिर किसी बेवफ़ा की याद आई
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अब तो आ जाओ रस्म-ए-दुनिया की
मैं ने दीवार भी गिरा दी है
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हाथ फिर बढ़ रहा है सू-ए-जाम
ज़िंदगी की उदासियों को सलाम
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टैग : शराब
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अगर सुकून से उम्र-ए-अज़ीज़ खोना हो
किसी की चाह में ख़ुद को तबाह कर लीजे
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हाए वो लोग हम से रूठ गए
जिन को चाहा था ज़िंदगी की तरह
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वही बे-वज्ह उदासी वही बे-नाम ख़लिश
राह-ओ-रस्म-ए-दिल-ए-नाकाम से जी डरता है
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दिन के सीने में धड़कते हुए लम्हों की क़सम
शब की रफ़्तार-ए-सुबुक-गाम से जी डरता है
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टैग : रात
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आई थी चंद गाम उसी बे-वफ़ा के साथ
फिर उम्र भर को भूल गई ज़िंदगी हमें
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हम आगही को रोते हैं और आगही हमें
वारफ़्तगी-ए-शौक़ कहाँ ले चली हमें
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टैग : आगही
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दरवाज़ों के पहरे हैं दीवारों के संगीनें
होता जो मिरे बस में इस घर से निकल जाता
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