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फ़ातिमा हसन के शेर

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क्या कहूँ उस से कि जो बात समझता ही नहीं

वो तो मिलने को मुलाक़ात समझता ही नहीं

सुकून-ए-दिल के लिए इश्क़ तो बहाना था

वगरना थक के कहीं तो ठहर ही जाना था

ख़्वाबों पर इख़्तियार यादों पे ज़ोर है

कब ज़िंदगी गुज़ारी है अपने हिसाब में

मैं ने माँ का लिबास जब पहना

मुझ को तितली ने अपने रंग दिए

उलझ के रह गए चेहरे मिरी निगाहों में

कुछ इतनी तेज़ी से बदले थे उन की बात के रंग

आँखों में ज़ुल्फ़ों में रुख़्सार में देखें

मुझ को मिरी दानिश मिरे अफ़्कार में देखें

कितने अच्छे लोग थे क्या रौनक़ें थीं उन के साथ

जिन की रुख़्सत ने हमारा शहर सूना कर दिया

दिखाई देता है जो कुछ कहीं वो ख़्वाब हो

जो सुन रही हूँ वो धोका हो समाअत का

बिछड़ रहा था मगर मुड़ के देखता भी रहा

मैं मुस्कुराती रही मैं ने भी कमाल किया

बहुत गहरी है उस की ख़ामुशी भी

मैं अपने क़द को छोटा पा रही हूँ

उस के प्याले में ज़हर है कि शराब

कैसे मालूम हो बग़ैर पिए

सुनती रही मैं सब के दुख ख़ामोशी से

किस का दुख था मेरे जैसा भूल गई

पूरी अधूरी हूँ कम-तर हूँ बरतर

इंसान हूँ इंसान के मेआर में देखें

और कोई नहीं है उस के सिवा

सुख दिए दुख दिए उसी ने दिए

कोई नहीं है मेरे जैसा चारों ओर

अपने गिर्द इक भीड़ सजा कर तन्हा हूँ

अधूरे लफ़्ज़ थे आवाज़ ग़ैर-वाज़ेह थी

दुआ को फिर भी नहीं देर कुछ असर में लगी

रात दरीचे तक कर रुक जाती है

बंद आँखों में उस का चेहरा रहता है

मकाँ बनाते हुए छत बहुत ज़रूरी है

बचा के सेहन में लेकिन शजर भी रखना है

हमारी नस्ल सँवरती है देख कर हम को

सो अपने-आप को शफ़्फ़ाफ़-तर भी रखना है

कब उस की फ़त्ह की ख़्वाहिश को जीत सकती थी

मैं वो फ़रीक़ हूँ जिस को कि हार जाना था

भूल गई हूँ किस से मेरा नाता था

और ये नाता कैसे टूटा भूल गई

मैं ने पहुँचाया उसे जीत के हर ख़ाने में

मेरी बाज़ी थी मिरी मात समझता ही नहीं

पहचान जिन से थी वो हवाले मिटा दिए

उस ने किताब-ए-ज़ात का सफ़्हा बदल दिया

ठेस कुछ ऐसी लगी है कि बिखरना है उसे

दिल में धड़कन की जगह दर्द है और जान नहीं

सुन रहे हैं कान जो कहते हैं सब

लोग लेकिन सोचते कुछ और हैं

और क्या शक्ल बे-मकानी की

जब सफ़र में ही ज़िंदगानी की

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