सुना है शहर में ज़ख़्मी दिलों का मेला है
चलेंगे हम भी मगर पैरहन रफ़ू कर के
इस तरफ़ से गुज़रे थे क़ाफ़िले बहारों के
आज तक सुलगते हैं ज़ख़्म रहगुज़ारों के
ख़ामोशी के नाख़ुन से छिल जाया करते हैं
कोई फिर इन ज़ख़्मों पर आवाज़ें मलता है
शाख़-ए-मिज़्गाँ पे महकने लगे ज़ख़्मों के गुलाब
पिछले मौसम की मुलाक़ात की बू ज़िंदा है
मैं तेरे हदिया-ए-फुर्क़त पे कैसे नाज़ाँ हूँ
मिरी जबीं पे तिरा ज़ख़्म तक हसीन नहीं