आकाश 'अर्श'
ग़ज़ल 5
नज़्म 2
अशआर 8
सब अपनी ज़ात में इक अंजुमन के मुजरिम हैं
किसी वजूद में कुछ फ़र्द जैसा है ही नहीं
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
मैं तेरे हदिया-ए-फुर्क़त पे कैसे नाज़ाँ हूँ
मिरी जबीं पे तिरा ज़ख़्म तक हसीन नहीं
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
मैं ख़ुद को देखता हूँ और भी हिक़ारत से
जब अपना मर्तबा तस्लीम करने लगता हूँ
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
किसी परिंद की चीख़ों ने संग-बारी की
सुकूत-ए-शाम का शीशा बिखर गया मुझ में
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए