मय-कशी पर शेर
मय-कशी पर शायरी मौज़ूआती
तौर पर बहुत मुतनव्वे है। इस में मय-कशी की हालत के तजुर्बात और कैफ़ियतों का बयान भी है और मय-कशी को लेकर ज़ाहिद-ओ-नासेह से रिवायती छेड़-छाड़ भी। इस शायरी में मय-कशों के लिए भी कई दिल-चस्प पहलू हैं। हमारे इस इन्तिख़ाब को पढ़िए और लुत्फ़ उठाइये।
कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई
आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई
बे पिए ही शराब से नफ़रत
ये जहालत नहीं तो फिर क्या है
इतनी पी जाए कि मिट जाए मैं और तू की तमीज़
यानी ये होश की दीवार गिरा दी जाए
तर्क-ए-मय ही समझ इसे नासेह
इतनी पी है कि पी नहीं जाती
पहले शराब ज़ीस्त थी अब ज़ीस्त है शराब
कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूँ मैं
ऐ 'ज़ौक़' देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा
छुटती नहीं है मुँह से ये काफ़र लगी हुई
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टैग्ज़ : प्रसिद्ध मिसरेऔर 2 अन्य
'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में
वो मिले भी तो इक झिझक सी रही
काश थोड़ी सी हम पिए होते
ख़ुश्क बातों में कहाँ है शैख़ कैफ़-ए-ज़िंदगी
वो तो पी कर ही मिलेगा जो मज़ा पीने में है
सब को मारा 'जिगर' के शेरों ने
और 'जिगर' को शराब ने मारा
अज़ाँ हो रही है पिला जल्द साक़ी
इबादत करें आज मख़मूर हो कर
बे-पिए शैख़ फ़रिश्ता था मगर
पी के इंसान हुआ जाता है
हर शब शब-ए-बरात है हर रोज़ रोज़-ए-ईद
सोता हूँ हाथ गर्दन-ए-मीना में डाल के
रिंद-ए-ख़राब-नोश की बे-अदबी तो देखिए
निय्यत-ए-मय-कशी न की हाथ में जाम ले लिया
ज़बान-ए-होश से ये कुफ़्र सरज़द हो नहीं सकता
मैं कैसे बिन पिए ले लूँ ख़ुदा का नाम ऐ साक़ी
जाम ले कर मुझ से वो कहता है अपने मुँह को फेर
रू-ब-रू यूँ तेरे मय पीने से शरमाते हैं हम
इतनी पी है कि ब'अद-ए-तौबा भी
बे-पिए बे-ख़ुदी सी रहती है
उठा सुराही ये शीशा वो जाम ले साक़ी
फिर इस के बाद ख़ुदा का भी नाम ले साक़ी
पिला मय आश्कारा हम को किस की साक़िया चोरी
ख़ुदा से जब नहीं चोरी तो फिर बंदे से क्या चोरी
मय-कशी के भी कुछ आदाब बरतना सीखो
हाथ में अपने अगर जाम लिया है तुम ने
मुझे तौबा का पूरा अज्र मिलता है उसी साअत
कोई ज़ोहरा-जबीं पीने पे जब मजबूर करता है
तुम शराब पी कर भी होश-मंद रहते हो
जाने क्यूँ मुझे ऐसी मय-कशी नहीं आई
ज़ाहिद शराब-ए-नाब हो या बादा-ए-तुहूर
पीने ही पर जब आए हराम ओ हलाल क्या
ग़र्क़ कर दे तुझ को ज़ाहिद तेरी दुनिया को ख़राब
कम से कम इतनी तो हर मय-कश के पैमाने में है
मय-कशी गर्दिश-ए-अय्याम से आगे न बढ़ी
मेरी मदहोशी मिरे जाम से आगे न बढ़ी
ऐ शैख़ मरते मरते बचे हैं पिए बग़ैर
आसी हों अब जो तौबा करें मय-कशी से हम
मय-कशी से नजात मुश्किल है
मय का डूबा कभी उभर न सका
मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
आई है शीशा-ओ-साग़र की तलबगार घटा
पी के जीते हैं जी के पीते हैं
हम को रग़बत है ऐसे जीने से
मय-कशी में रखते हैं हम मशरब-ए-दुर्द-ए-शराब
जाम-ए-मय चलता जहाँ देखा वहाँ पर जम गए