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हकीम नासिर

1947 - 2007 | कराची, पाकिस्तान

हकीम नासिर

ग़ज़ल 10

अशआर 15

जब से तू ने मुझे दीवाना बना रक्खा है

संग हर शख़्स ने हाथों में उठा रक्खा है

आप क्या आए कि रुख़्सत सब अंधेरे हो गए

इस क़दर घर में कभी भी रौशनी देखी थी

वो मुझे छोड़ के इक शाम गए थे 'नासिर'

ज़िंदगी अपनी उसी शाम से आगे बढ़ी

पत्थरो आज मिरे सर पे बरसते क्यूँ हो

मैं ने तुम को भी कभी अपना ख़ुदा रक्खा है

घर में जो इक चराग़ था तुम ने उसे बुझा दिया

कोई कभी चराग़ हम घर में फिर जला सके

पुस्तकें 2

 

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