ख़ुद्दारी पर शेर
ख़ुद्दारी या आत्मसम्मान
वह पूंजी है जिस पर शायर हमेशा नाज़ करता रहा है और इसे जताने में भी कभी झिझक महसूस नहीं की। अपने वुजूद की अहमियत को समझना और उसे पूरा-पूरा सम्मान देना शायरों की ख़ास पहचान भी रही है। शायर सब कुछ बर्दाश्त कर लेता है लेकिन अपनी ख़ुद्दारी पर लगने वाली हल्की सी चोट से भी तिलमिला उठता है। खुद्दारी शायरी कई ख़ूबसूरत मिसालों से भरी हैः
मुझे दुश्मन से भी ख़ुद्दारी की उम्मीद रहती है
किसी का भी हो सर क़दमों में सर अच्छा नहीं लगता
किसी रईस की महफ़िल का ज़िक्र ही क्या है
ख़ुदा के घर भी न जाएँगे बिन बुलाए हुए
दुनिया मेरी बला जाने महँगी है या सस्ती है
मौत मिले तो मुफ़्त न लूँ हस्ती की क्या हस्ती है
वक़्त के साथ बदलना तो बहुत आसाँ था
मुझ से हर वक़्त मुख़ातिब रही ग़ैरत मेरी
मैं तिरे दर का भिकारी तू मिरे दर का फ़क़ीर
आदमी इस दौर में ख़ुद्दार हो सकता नहीं
हम तिरे ख़्वाबों की जन्नत से निकल कर आ गए
देख तेरा क़स्र-ए-आली-शान ख़ाली कर दिया
गर्द-ए-शोहरत को भी दामन से लिपटने न दिया
कोई एहसान ज़माने का उठाया ही नहीं
जिस दिन मिरी जबीं किसी दहलीज़ पर झुके
उस दिन ख़ुदा शिगाफ़ मिरे सर में डाल दे
इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम
हट कर चले हैं रहगुज़र-ए-कारवाँ से हम
क्या मालूम किसी की मुश्किल
ख़ुद-दारी है या ख़ुद-बीनी