मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता के शेर
इज़हार-ए-इश्क़ उस से न करना था 'शेफ़्ता'
ये क्या किया कि दोस्त को दुश्मन बना दिया
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हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम
बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा
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फ़साने यूँ तो मोहब्बत के सच हैं पर कुछ कुछ
बढ़ा भी देते हैं हम ज़ेब-ए-दास्ताँ के लिए
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जिस लब के ग़ैर बोसे लें उस लब से 'शेफ़्ता'
कम्बख़्त गालियाँ भी नहीं मेरे वास्ते
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इतनी न बढ़ा पाकी-ए-दामाँ की हिकायत
दामन को ज़रा देख ज़रा बंद-ए-क़बा देख
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बे-उज़्र वो कर लेते हैं व'अदा ये समझ कर
ये अहल-ए-मुरव्वत हैं तक़ाज़ा न करेंगे
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शायद इसी का नाम मोहब्बत है 'शेफ़्ता'
इक आग सी है सीने के अंदर लगी हुई
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हज़ार दाम से निकला हूँ एक जुम्बिश में
जिसे ग़ुरूर हो आए करे शिकार मुझे
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किस लिए लुत्फ़ की बातें हैं फिर
क्या कोई और सितम याद आया
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आशुफ़्ता-ख़ातिरी वो बला है कि 'शेफ़्ता'
ताअत में कुछ मज़ा है न लज़्ज़त गुनाह में
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उड़ती सी 'शेफ़्ता' की ख़बर कुछ सुनी है आज
लेकिन ख़ुदा करे ये ख़बर मो'तबर न हो
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ऐ ताब-ए-बर्क़ थोड़ी सी तकलीफ़ और भी
कुछ रह गए हैं ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ हनूज़
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दिल-ए-बद-ख़ू की किसी तरह रऊनत कम हो
चाहता हूँ वो सनम जिस में मोहब्बत कम हो
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किस तजाहुल से वो कहता है कहाँ रहते हो
तेरे कूचे में सितमगार तिरे कूचे में
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शब वस्ल की भी चैन से क्यूँकर बसर करें
जब यूँ निगाहबानी मुर्ग़-ए-सहर करें
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