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तंज़-ओ-मज़ाह1
नरेश कुमार शाद के शेर
इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो
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ख़ुदा से क्या मोहब्बत कर सकेगा
जिसे नफ़रत है उस के आदमी से
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ज़िंदगी से तो ख़ैर शिकवा था
मुद्दतों मौत ने भी तरसाया
अक़्ल से सिर्फ़ ज़ेहन रौशन था
इश्क़ ने दिल में रौशनी की है
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अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर
तेरा ही इंतिज़ार किया है कभी कभी
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गुनाहों से हमें रग़बत न थी मगर या रब
तिरी निगाह-ए-करम को भी मुँह दिखाना था
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ज़िंदगी नाम है जुदाई का
आप आए तो मुझ को याद आया
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टैग : जुदाई
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ख़ुदा से लोग भी ख़ाइफ़ कभी थे
मगर लोगों से अब ख़ाइफ़ ख़ुदा है
महसूस भी हो जाए तो होता नहीं बयाँ
नाज़ुक सा है जो फ़र्क़ गुनाह ओ सवाब में
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टैग : गुनाह
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किसी के जौर-ओ-सितम का तो इक बहाना था
हमारे दिल को बहर-हाल टूट जाना था
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टैग : बहाना
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तूफ़ान-ए-ग़म की तुंद हवाओं के बावजूद
इक शम-ए-आरज़ू है जो अब तक बुझी नहीं
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तू मिरे ग़म में न हँसती हुई आँखों को रुला
मैं तो मर मर के भी जी सकता हूँ मेरा क्या है
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ये सोच कर भी हँस न सके हम शिकस्ता-दिल
यारान-ए-ग़म-गुसार का दिल टूट जाएगा
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तिरा हिज्र मेरा नसीब है तिरा ग़म ही मेरी हयात है
मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों तू कहीं भी हो मिरे पास है
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किसी से रस्म-ओ-रह-ए-दोस्ती तो क्या करते
हमारा ख़ुद से तआ'रुफ़ भी ग़ाएबाना था
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