मुज़फ़्फ़र रज़्मी के शेर
ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई
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ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो ठहर जाऊँगा
वर्ना ख़ुद्दार मुसाफ़िर हूँ गुज़र जाऊँगा
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क़रीब आओ तो शायद समझ में आ जाए
कि फ़ासले तो ग़लत-फ़हमियाँ बढ़ाते हैं
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टैग : फ़ासला
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मुझ को हालात में उलझा हुआ रहने दे यूँही
मैं तिरी ज़ुल्फ़ नहीं हूँ जो सँवर जाऊँगा
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मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाक़ी
अगली नस्लों को दुआ दे के चला जाऊँगा
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कोई सौग़ात-ए-वफ़ा दे के चला जाऊँगा
तुझ को जीने की अदा दे के चला जाऊँगा
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मेरे माहौल में हर सम्त बुरे लोग नहीं
कुछ भले भी मिरे हमराह चले आते हैं
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इस राज़ को क्या जानें साहिल के तमाशाई
हम डूब के समझे हैं दरिया तिरी गहराई
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अंदाज़-ए-ग़ज़ल आप का क्या ख़ूब है 'रज़्मी'
महसूस ये होता है क़लम तोड़ दिया है
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